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उपसर्गाध्ययनं
चाहता हो, वह सुख ही देवे के अनुरूप ही कार्य होता है
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। सुख देने वाले को ही सुख मिलता है । ऐसा युक्ति युक्त भी है क्योंकि कारण । जैसे शालि - वासमती आदि उत्तम कोटि के चांवलों के बीज से वैसा ही चांवल का पौधा अंकुरित होता है, जौ का नहीं । अतः इस लोक के सुख से परलोक में मोक्ष - सुख की प्राप्ति होती है । केश - लुंचन आदि कष्टप्रद कार्यों से मोक्ष नहीं मिलता । आगम ऐसा कहा है- मनोज्ञ-प्रिय, रूचिकर आहार, मनोहर शय्या, आसन और घर में मुनि मनोज्ञ - सुन्दर सुखप्रद ध्यान ध्याए । और भी कहा है-मुनि को मृद्वी - मृदुल, मुलायम शय्या पर सोना चाहिए, प्रातः उठकर दूध आदि पेय पदार्थ पीने चाहिए, मध्यान्ह में चांवलों का भोजन करना चाहिए, अपराह्न -तीसरे पहर में पानक- आसव, मद्य आदि का पान करना चाहिए। अर्धरात्रि के समय द्राक्षा- दाख या किशमिश और मिश्री का सेवन करना चाहिए । इससे अन्ततः मोक्ष प्राप्त होता है । ऐसा शाक्य वंशीय बुद्ध ने देखा है - साक्षात्कार किया है ।
मनोज्ञ, आहार, विहार आदि से चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है । प्रसन्नता के परिणाम स्वरूप एकाग्रता आती है, चित्त एकाग्र या सुस्थिर होता है । उससे मुक्ति प्राप्त होती है । इससे यह सिद्ध होता है कि सुख से ही सुख मिलता है । केश लुंचन आदि काय - क्लेश प्रद कार्यों से, दुःखों से मोक्ष- छुटकारा नहीं होता । इस प्रकार प्ररूपित करने वाले शाक्य - बौद्ध आदि मतवादी मोक्षात्मक चिन्तन के संदर्भ में समग्र हेय - त्यागने योग्य धर्मों से दूरवर्ती जैनेन्द्र शासन में जैन आम्नाय में से प्रतिपादित, परमशान्तिप्रद, सम्यक ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र मूलक मोक्षमार्ग का परित्याग कर देते हैं । वे अज्ञ हैं मूर्ख हैं । वे सदा भव चक्र में भटकते रहते हैं। उन्होंने जो प्रतिपादित किया कि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, यह ऐकान्तिक - अत्यन्त निश्चित नहीं है क्योंकि ऐसा देखा जाता है शृंग-सोंग नामक वनस्पति से शर-सरकंडा पैदा होता है । गोबर से बिच्छु उत्पन्न होता है । गाय तथा भेड़ के बालों से दूब पैदा होती है ।
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:-तत्त्वतः
मनोज्ञ-उत्तम, स्वादिष्ट आहार को जो सुख का हेतु बतलाया गया है, वह भी दोषपूर्ण - त्रुटिपूर्ण है क्योंकि उससे विशुचिका - हैजा आदि रोग भी उत्पन्न हो सकते हैं । वास्तव में वैषयिक-सांसारिक भोग जनित सुख प्रतीत होता है, वह सुख है ही नहीं । कहा है- दुःखात्मक विषयों में सुख मानना तथा सौख्यात्मक - त सुखप्रद व्रत - नियम आदि में दुःख समझना उसी प्रकार विपरीत या उलटी बात है, जैसे उत्कीर्ण-उकेरे हुए, खोदे हुए वर्णों-अक्षरों व पदों की अन्य रूपा - उलटी पंक्ति उस उत्कीर्ण अक्षरमय पंक्ति को उलटा रखने से अक्षरों का रूप सीधा दिखाई देता है । इस तरह यहां विवक्षित सुख-दुःख को उलट कर देखना-समझना होगा। इसलिए दुःखात्मक विषय भोग परमानन्द स्वरूप ऐकान्तिक सर्वथा निश्चित, आत्यन्तिक - संपूर्णतया अवस्थित मोक्ष-सुख का कारण किस प्रकार हो सकते हैं। केश लुंचन, भूमि पर शयन, भिक्षा याचना, दूसरों द्वारा किये गये अपमान को सहना, क्षुधा, तृषा, डांस, मच्छर आदि का कष्ट - इनको आपने जो दुःख के हेतु कहा है, जिनका हृदय अत्यन्त दुर्बल है, जो परमार्थ-मोक्ष मार्ग के द्रष्टा नहीं हैं। जो महासत्व -महापुरुष परमार्थ को जानते हैं, उसकी चिन्ता में, उसे प्राप्त करने के प्रयत्न में तत्पर रहते हैं, जो आत्म कल्याण की साधना में प्रवृत्त हैं, उनके लिए ये सब दुःख रूप नहीं हैं, क्योंकि उनमें बहुत बड़ी आत्मशक्ति होती है, जिनके प्रभाव से ये सब सुख साधन का स्वरूप ले लेते हैं । कहा है राग, अहंकार तथा मोह वर्जित मुनि घास फूस के बिछौने पर सोया हुआ भी जिस परम आनन्दमय मोक्ष, सुख का अनुभव करता है, चक्रवर्ती सम्राट भी उसे कहा जा सकता है। और भी कहा है - महापुरुष दुःख से व्यथित नहीं होते किन्तु वे यह जानकर बड़े सुखी होते हैं कि दुःख के आ जाने के कारण पापों का क्षय होता है । क्षमा क्षमाशीलता या सहनशीलता से बैर
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