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उपसर्गाध्ययनं
निपतन्ति, एवं तेऽपि प्रोझ्य संयमभारं शीतल विहारिणो भवन्ति, दृष्टान्तान्तरमाह - यथा 'पृष्ठसर्पिणो' भग्नगतयोऽग्न्यादिसम्भ्रमे सत्युद्भ्रान्तननयनाः समाकुलाः प्रनष्टजनस्य 'पृष्ठतः ' पश्चात्परिसर्पन्ति नाग्रगामिनो भवन्ति, अपि तु तत्रैवान्यादिसम्भ्रमे विनश्यन्ति, एवं तेऽपि शीतलविहारिणो मोक्षं प्रति प्रवृता अपि तु न मोक्षगतयो भवन्ति अपि तु तस्मिन्नेव संसारे अनन्तमपि कालं यावदासत इति ॥ ५ ॥ मातान्तरं निराकर्तुं पूर्वपक्षयितुमाह
टीकार्थ - कुश्रुत-मिथ्याज्ञान उपदिष्ट करने वाले मिथ्यादृष्टि वादियों के उपर्युक्त प्रतिपादनात्मक उपसर्ग के उदित उपस्थित होने पर अज्ञ जन, मोक्ष तो अनेक प्रकार के उपायों द्वारा साध्य है, हम से वे कैसे बन पडेंगे यों सोचकर संयम का पालन करने में कष्ट का अनुभव करते हैं । वे अज्ञानी यह नहीं जानते कि जिन उक्त पुरुषों ने मोक्ष प्राप्त किया, उनको किसी कारण वश जाति स्मरण आदि पूर्वजन्म के ज्ञान के प्रकट होने से सम्यक् दर्शन और चारित्र प्राप्त हुआ, जिससे वे मुक्त हुए । वल्कलचीरी आदि ने इसी तरह मोक्ष प्राप्त किया । सर्वविदित-सर्वत्याग मूलक- आत्म परिणाम एवं भाव संयम के बिना जीवों के विनाश-हिंसा से संयुक्त सचित्त जल के पान एवं बीजादि के उपभोग से कर्म क्षयात्मक मोक्ष कदापि उपलब्ध नहीं हो सकता ।
मिथ्यादृष्टि मतवादियों के उपदेश से संयम पालन में जो कष्ट अनुभव करने लगते हैं, उन जीवों के संबंध में शास्त्रकार दृष्टान्त के माध्यम से बतलाते हैं 'वाह' भार का नाम है उसे ढोने में लेकर चलने में एक कमजोर गधा जैसे पीड़ा अनुभव करता है, उसी प्रकार उक्त साधु संयम का परिपालन करने में दुःखानुभूति करता है, वह गधा रास्ते में ही भार को गिरा डालता है, खुद भी गिर पड़ता है, उसी प्रकार उक्त साधु भी संयम के भार का परित्याग कर शिथिलाचारी हो जाते हैं, इस संबंध में सूत्रकार एक ओर दृष्टान्त देते हैंजैसे भीषण अग्नि लग जाने पर एक पंगु-लंगड़ा घबरा उठता है, उसकी आँखे चुंधिया जाती है । वह आग के डर से भागने वाले लोगों की तरह उद्यम करता है किन्तु वह आगे नहीं बढ़ पाता, वही अग्नि आदि द्वारा जलकर भस्म हो जाता है, नष्ट हो जाता है । उसी प्रकार शिथिलाचारी पुरुष मोक्ष के मार्ग पर चलने हेतु उद्यत होकर भी वहाँ तक पहुँच नहीं पाता । वह अनन्त काल पर्यन्त इस संसार में भटकता रहता है 1
इहमेगे उ भासंति, सातं जे तत्थ आरियं मग्गं,
छाया इहैके तु भाषन्ते सातं सातेन विद्यत । ये तत्र आय्य मार्गं परमञ्च समाधिकम् ॥
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सातेण
विज्जती । परमं च समाहिए (यं ) ॥६॥
अनुवाद कई मिथ्यादर्शनवादी ऐसा कहते हैं कि सुख से सुख प्राप्त होता है, वे अज्ञ हैं । परम समाधिजनक-आध्यात्मिक शांतिप्रद वीतराग प्रतिपादित आर्यमार्ग-सम्यकज्ञानदर्शन चारित्रमूलक मोक्ष पथ का जो त्याग कर देते हैं, वे अविवेकी हैं ।
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टीका - मतान्तरं निराकर्तुं पूर्वपक्षयितुमाह- 'इहे 'ति मोक्षगमनविचारप्रस्तावे 'एके' शाक्यादयः स्वयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ताः, तुशब्दः पूर्वस्मात् शीतोदकादिपरिभोगाद्विशेषमाह, 'भाषन्ते' ब्रुवते मन्यन्ते वा क्वचित्पाठः, किं तदित्याह-'सातं' सुखं 'सातेन' सुखेनैव 'विद्यते' भवतीति, तथा च वक्तारो भवन्ति
"सर्वाणि सत्त्वानि सुखे सानि सर्वाणि दुःखाच्च समुद्भिजन्ते । तस्मात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सुख प्रदाता लभते सुखानि ॥१॥"
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