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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् - एते पुव्वं महापुरिसा, आहिता इह संमता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा, इति मेयमणुस्सुअं ॥४॥ छाया - एवे पूर्व महापुरिसषा आख्याता इह सम्मताः ।
भुक्त्वा बीजोदकं सिद्धा इति मयानुश्रुतम् ॥ अनुवाद - पूर्ववर्ती समय में ये महापुरुष विख्यात थे, जैनशास्त्रों में भी ये अभिमत हैं। इन्होंने बीज और सचित्त जल का सेवन करते हुए मुक्ति प्राप्त की।
टीका - एतदेव दर्शयितुमाह-एते पूर्वोक्ता नम्यादयो महर्षयः 'पूर्वमि' ति पूर्वस्मिन्काले त्रताद्वापरादौ 'महापुरुषा' इति प्रधानपुरुषा आ-समन्तात् ख्याताः आख्याता:-प्रख्याता राजर्षित्वेन प्रसिद्धिमुपगता इहापि आर्हते प्रवचने ऋषिभाषितादौ केचन 'सम्मता' अभिप्रेता इत्येवं कुतीर्थिकाः स्वयथ्या वा प्रोचः, तद्यथा-एते सर्वेऽपि बीजोदकादिकं भुक्त्वा सिद्धा इत्मेतन्मया भारतादौ पुराणे श्रुतम् ॥४॥ एतदुपसंहारद्वापरेण परिहन्नाह -
टीकार्थ - पहले जो प्रतिपादित किया गया है, उसी का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते हैं "ये पूर्वोक्त नमी आदि महर्षि त्रेता, द्वापर युगों में महापुरुषों अर्थात् प्रधान पुरुषों या उच्च पुरुषों के रूप में प्रख्यात रहे हैं । राजर्षि के रूप में इन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की थी । ऋषिभाषित आदि आहेत प्रवचन में भी इनमें से कतिपय सम्मत-अभिमत या स्वीकृत हैं । ऐसा मिथ्यादर्शनवादी अथवा अपने यूथ या परम्परानुवर्ती मिथ्यावादी कहते हैं । तदनुसार ये सभी बीज, सचित्त जल आदि का भोग करते हुए सिद्ध हुए, ऐसा महाभारत आदि पुराणों में सुना जाता है । इसका उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं ।
तत्थ मंदा विसीअंति, बाहच्छिन्ना व गद्दभा । पिट्ठतो परिसप्पंति, पिट्ठसप्पी य संभमे ॥५॥ छाया - तत्र मन्दाः विसीदन्ति वाहच्छिन्ना इव गर्दभाः ।
पृष्ठतः परिसर्पन्ति पृष्ठसी च संभ्रमे ॥ अनुवाद - मिथ्यादृष्टियों द्वारा कही गई बातों का श्रवणकर कई मंद-अज्ञानी जन संयम का पालन करने में इस प्रकार कष्ट का अनुभव करते हैं जैसे भारी बोझे से लदे हुए गधे उस भार को लेकर चलने में दुःखित होते हैं । जैसे लकड़ी के टुकड़ों का सहारा लिए पृष्टसी-पीठ को सरकाते सरकाते घसीटतेघसीटते चलने वाला पंगु पुरुष संभ्रम-आग लग जाने आदि के रूप में भय उपस्थित होने पर भागते हुए लोगों के पीछे-पीछे चलने का उद्यम करता है पर चल नहीं पाता ।
टीका - 'तत्र' तस्मिन् कुश्रुत्युपसर्गोदये 'मन्दा' अज्ञा नानाविधोपायसाध्यं सिद्धिगमनमवधार्य विसीदन्ति संयमानुष्ठाने न पुनरेतद्विदन्त्यज्ञाः, तद्यथा-येषां सिद्धिगमनमभूत् तेषां कुतश्चिन्निमित्तात् जातजातिस्मरणादि प्रत्यायानामवाप्तसम्यग्ज्ञानचारित्राणामेव वल्कलचीरिप्रभृतीनामिव सिद्धिगमनभूत्, न पुनः कदाचिदपि सर्वविरतिपरिणामभावलिङ्ग मन्तरेण शीतोदकबीजाधुपभोगेन जीवोपमर्दप्रायेण कर्मक्षयोऽवाप्यते विषीदने दृष्टान्तमाहवहनं वाहो-भारोद्वहनं तेन छिन्ना:-कर्षितास्त्रुटिता रासभा इव विषीदन्ति, यथा रासभा गमनपथ एव प्रोज्झितभाराः
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