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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् स भवत्यात्मसमाधिकः, एतदुक्तं भवति-येन येनोपन्यस्तेन हेतुदृष्टान्तादिना आत्मसमाधिः-स्वपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्य वचनादिना वा परानुपघातलक्षणः समुत्पद्यते तत् तत् कुर्यादिति, तथा येनानुष्ठितेन वा भाषितेन वा अन्य तीर्थिको धर्म श्रवणादौ वाऽन्यःप्रवृत्तो 'न विरुध्येत' न विरोधं गच्छेत्, तेन पराविरोधकारणेन तत्त विरुद्धमनुष्ठानं वचनं वा 'समाचरेत्' कुर्यादिति ॥१९॥
टीकार्थ - जिन उपक्रमों से अपने पक्ष की सिद्धि तथा अन्य पक्ष में दोषोत्पत्ति हो, अथवा अपने में माध्यस्थ्य-पक्षपातरहित तटस्थता आदि उत्पन्न हो, उन्हें बहुगुण प्रकल्प कहा जाता है । उसके अन्तर्गत प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण उपनय और निगमन आदि है अथवा मध्यस्थता युक्त वचन प्रकार-वाणी बोलना बहुगुण प्रकल्प कहा जाता है । अतः साधु किसी के साथ वाद या चर्चा करते समय या अन्य समय ऐसा ही करे, ऐसे साधु की विशेषता का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार कहते हैं-जिसका चित्त प्रसन्न प्रशांत होता है, उस मुनि को आत्मसमाधिक कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि जिन हेतु दृष्टान्त आदि के उपयोग द्वारा आत्म समाधि-अपने पक्ष की सिद्धि होती है अथवा जिस माध्यस्थ भावयुक्त वचन के कहने से दूसरे के मन में किसी प्रकार की पीड़ा उत्पन्न न हो साधु ऐसा करे । धर्म श्रवण आदि करने में उद्यत-प्रवृत्त अन्य मतावलम्बी तथा दूसरे व्यक्ति जिस उपक्रम या भाषण से दूसरे अपने विरोधी न बने साधु वैसा ही करे, वैसा ही बोले ।
इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२०॥ छाया - इमञ्च धर्ममादाय काश्यपेन प्रवेदितम् ।
कुर्याद् भिक्षु ग्लानस्य अग्लान्या समाहितः ॥ अनुवाद - काश्यप गौत्रीय प्रभु महावीर द्वारा प्ररूपित इस धर्म को स्वीकार कर मुनि प्रशांत चित्त होता हुआ ग्लान रुग्ण साधु की अग्लान भाव से मन में जरा भी ग्लानि या घृणा न लाते हुए सेवा, परिचर्या करे ।
टीका - तदेवं परमतं निराकृत्योपसंहारद्वारेण स्वमतस्थापनायाह-'इम' मिति वक्ष्यमाणं दुर्गतिधारणाद्धर्मम् 'आदाय' उपादाय गृहीत्वा 'काश्यपेन' श्री मन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनोत्पन्नदिव्यज्ञानेन सदैव मनुजायां पर्षदि प्रकर्षण यथा वस्थितार्थ निरूपणद्वारेण वेदितं प्रवेदितं, च शब्दात्परमतं च निराकृत्य, भिक्षणशीलो भिक्षुः ‘ग्लानस्य' अपटोरपरस्य भिक्षोवैयावृत्यादिकं कुर्यात् 'कथं कुर्याद् ?' एतदेव विशिनष्टि-स्वतोऽप्यग्लानतया यथा शक्ति 'समाहितः' समाधि प्राप्त इति, इद मुक्तं भवति यथा यथाऽऽत्मनः समाधिरुपद्यते न तत्कारणेन अपारवसंभवात् योगा विषीदन्तीति तथा यथा तस्य च ग्लानस्य समाधिरुत्पद्यते तथा पिण्डपातादिकं विधेयमिति ॥२०॥
टीकार्थ - जैसा पूर्व में वर्णित हुआ-इतरमतवादियों के मतों का खण्डन कर अब आगमकार समाप्ति के प्रसंग में अपने पक्ष की स्थापना करने हेतु कहते हैं । दुर्गति में पतित होते प्राणियों को धर्म बचाता है, यह आगे वर्णन किया जायेगा । दिव्यज्ञान-केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भगवान् महावीर ने देवों और मानवों की परिषद् में सद्धर्म की प्ररुपणा की थी। यहां गाथा में प्रयुक्त 'च' शब्द से यह सूचित होता है, कि इतर मतवादियों के सिद्धान्तों का खण्डन करके उन्होंने धर्म की प्ररुपणा की थी। इस धर्म को अङ्गीकार कर भिक्षणशील-भिक्षोपजीवी साधु दूसरे अपटुः-असमर्थ, अशक्त, रुग्ण साधु का वैयावृत्त-सेवा परिचर्या करे, कैसे करे ? यह बतलाते हैंस्वयं अग्लान-ग्लानि रहित, घृणा रहित समाहित-समाधियुक्त होकर वैसा करे, इसका तात्पर्य यह है कि जिस
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