________________
उपसर्गाध्ययनं प्रकार अपनी आत्मा को समाधि उत्पन्न होती है, वैसा नहीं करने अपटुता अयोग्यता के कारण साधु स्वयं असमर्थ हो जाता है । ऐसा होने से उसका कार्य यथाविधी नहीं चल पाता । अतएव जिस प्रकार अपनी आत्मा को समाधि उत्पन्न हो, रुग्ण की आत्मा को समाधि उत्पन्न हो, उसी प्रकार आहारादि उसे देना चाहिए ।
ॐ ॐ ॐ
संखाय पेसलं धम्मं, दिट्ठिमं परिनिव्वुडे । उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वज्जाऽसि ॥ २१ ॥ त्तिबेमि ॥
छाया संख्या पेशलं धर्मं, दृष्टिमान् परिनिर्वृतः ।
उपसर्गान् नियम्य आमोक्षाय परिव्रजेदिति ब्रवीमि ॥
अनुवाद - दृष्टिमान - पदार्थ के सत्यस्वरूप का द्रष्टा, परिनिर्वृत-प्रशांत मुनि इस पेशल - उत्तम धर्म जानकर उपसर्गों को सहता हुआ मोक्ष प्राप्त करने तक संयम का प्रतिपालन करे । मैं ऐसा कहता हूँ ।
टीका किं कृत्वैत द्विधेयमिति दर्शयितुमाह- 'संखाये 'त्यादि, संख्याय - ज्ञात्वा कं ? ' धर्मं ' सर्वज्ञ प्रणीतं श्रुतचारित्राख्य भेदभिन्नं 'पेशलम्' इति सुश्लिष्टं प्राणिनामहिंसादि प्रवृत्त्या प्रीतिकारणं, किम्भूतमिति दर्शयति-दर्शनं दृष्टिः सद्भूतपदार्थगतासम्यग्दर्शनमित्यर्थः सा विद्यते यस्यासौ दृष्टिमान् यथावस्थितपदार्थ परिच्छेद वानित्यर्थः, तथा ‘परिनिर्वृतो' रागद्वेष विरहाच्छान्ती भूतस्तदेवं धर्म पेशलं परिसंख्याय दृष्टिमान् परिनिर्वृत उपसर्गाननुकूल प्रतिकूलान्नियम्य-संयम्यसोढा नोपसगैरूपसर्गितोऽसमञ्जसं विदध्यादित्येवम्' आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षय प्राप्तिं यावत् परि-समन्तात् व्रजेत् - संयमानुष्ठानोद्युक्तो भवेत् परिव्रजेद्, इतिः परिसमाप्त्यर्थे ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२१॥
-
उपसर्ग परिज्ञायास्तृतीयोद्देशकः समाप्त ॥३॥
टीकार्थ - क्या करके साधु को इस प्रकार करना चाहिए। इसका दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार कहते हैं - साधु को, सर्वज्ञ प्रतिपादित श्रुत एवं चारित्र रूप धर्म को जानकर आत्मसात् करे कि वह सुगठित सुव्यवस्थितव्रतादि परिभाषित है, अहिंसा आदि में प्रवृत होने के कारण प्राणियों के लिए प्रीतिप्रद है ऐसा करना चाहिए ज्यों आगे बतलाया जा रहा है, वह साधु कैसा है ? यह बतलाते हैं- पदार्थों के यथार्थ या सत्यस्वरूप को देखना उसमें विश्वास करना सम्यक दर्शन है, उसे दृष्टि कहा जाता है । वह जिसमें विद्यमान है उसे दृष्टिमान कहते है। दूसरे शब्दों में जो पुरुष पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानता है, वह दृष्टिमान है, वैसे पुरुष को परिनिर्वृत कहा जाता है । यों उत्तम धर्म को जानकर, पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का द्रष्टा शांत प्रशांत भावापन्न मुनि अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करे । उपसर्गों को सहने में बाधा, कठिनाई उत्पन्न होने पर वह कोई ऐसा कार्य न करे जो उचित न हो, इस प्रकार वह मुनि जब तक समस्त कर्मों के क्षय के परिणाम स्वरूप मोक्ष को प्राप्त न हो जाय तब तक संयम के अनुष्ठान में भलीभांति उद्युक्त तत्पर रहे । इति शब्द यहाँ समाप्ति के
अर्थ में आया है । ब्रवीमि पहले की ज्यों योजनीय है ।
उपसर्ग परिज्ञा का तीसरा उद्देशक समाप्त हुआ ।
241
编