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उपसर्गाध्ययनं टीकार्थ - दान आदि देकर साधुओं का उपकार करना चाहिए, यह धर्मप्रज्ञापना, धर्मोपदेश गृहस्थों के लिए विशोधक-उन्हें पवित्र करने वाला है, साधुओं को नहीं, क्योंकि साधु अपने संयम मूलक अनुष्ठानों से ही शुद्ध होते हैं, अतः उन्हें दान देने का अधिकार नहीं है । इस सिद्धान्त को सदोष बताने के लिए सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं कि रुग्णता आदि की स्थिति में गृहस्थों को ही आहार आदि द्वारा साधु का उपकार करना चाहिए, परिचर्या करनी चाहिए किन्तु साधुओं को आपस में ऐसा उपकार नहीं करना चाहिए । आपके इस दृष्टि के अनुरूप सर्वज्ञों ने पूर्व समय में कभी धर्म देशना नहीं की, क्योंकि सर्वज्ञमहापुरुष ऐसे अत्यन्त तुच्छ नगण्य अर्थ की प्ररूपणा नहीं करते । जैसे एषणा आदि में उपयोग नहीं रखने वाले असंयत पुरुष ही रुग्ण आदि साधु का वैयावृत्य-सेवा परिचर्या करे, किन्तु उपयोग रखने वाले संयत पुरुष ऐसा न करे । सर्वज्ञों की ऐसी देशना नहीं हो सकती । आप लोग भी गृहस्थ को रुग्ण साधु की सेवा परिचर्या करने की प्रेरणा करते हैं । इस कार्य का इस प्रकार अनुमोदन करने से रोगी साधु का उपकार करना आप स्वीकृत कर ही लेते हैं, यों आप रोगी साधु का उपकार करते भी हैं और उस कार्य का विरोध भी करते हैं।
सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, अचयंता जवित्तए । .. ततो वायं णिराकिच्चा, ते भुज्जीवि पगब्भिया ॥१७॥ छाया - सर्वाभि रनुयुक्तिभिरशक्नुवन्तो यापयितुम् ।।
ततो वादे निराकृत्य ते भूयोऽपि प्रगल्भिताः ॥ अनुवाद - अन्य मतानुयायी सभी प्रकार की युक्तियों द्वारा जब अपने मन्तव्य को स्थापित करने में समर्थ नहीं होते, तब वे वाद का निराकरण कर-परित्याग कर दूसरे प्रकार से अपना पक्ष सिद्ध करने की धृष्टता करते हैं।
टीका - ते गोशालकमतानुसारिणो दिगम्बरा वा सर्वाभिरर्थानुगताभियुक्तिभिः सवैरैव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाण । भूतैरशक्नुवन्तः स्वपक्षे आत्मानं 'यापयितुम्' संस्थापयितुम् 'ततः' तस्माद्युक्तिभिः प्रतिपादयितुम् सामर्थ्या भावाद् 'वादंनिराकृत्य' सम्यगहेतुदृष्टान्तैों वादो-जल्पस्तं परित्यज्य ते तीर्थिका 'भूयः' पुनरपि वाद परित्यागे सत्यपि 'प्रगल्भिता' धृष्टतां गता इदमूचुः तद्यथा - __ "पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानिहेतुभिः ॥१॥"
अन्यच्च किमनया बहिरङ्गया युक्त्याऽनुमानादिकयाऽत्र धर्म परीक्षणे विधेये कर्तव्यमस्ति, यतः प्रत्यक्ष एव बहुजनसंमतत्वेन राजाद्याश्रयणाच्चायमेवास्मदभिप्रेतो धर्मः श्रेयन्नापर इत्येवं विवदन्ते, तेषामिदमुत्तरम्-न ह्यत्र ज्ञानादि साररहितेन बहुनाऽपि प्रयोजनमस्तीति, उक्तं च
"ऐरंडकट्ठरासी जहा य. गोसीसचंदनपलस्स । मोल्ले न होज सरिसो कित्तियमेत्तो गणिजंतो ॥१॥" छाया - एरण्ड काष्ठ राशियथा च गोशीर्ष चन्दन पलस्म, मूल्येन न भवेत् सदृशः कियन्मात्रो गण्यमानः । तहवि गणणातिरेगो जह रासी सो न चंदन सरिच्छो । तह निविण्णाणमहाजणोवि सोझे विसंवयति ॥२॥ छाया - तथापि गणनातिरेको यथा राशी स न चन्दन सदृशः, तथा निर्विज्ञानमहा जनोऽपि मूल्ये विसंवदते ।
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