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उपसर्गाध्ययनं अवश्यंभावी है- अवश्य करना ही होता है । अतः द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव की अपेक्षा न करते हुए व्रण को अत्यधिक खुजलाने की ज्यों, संयम के उपकरणों का भी परित्याग कर देना श्रेयस्कर नहीं है ।
तत्तेण अणुसिद्धा ते ण एस यिए मग्गे, असमिक्खा
अपडिनेण
छाया
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जाणया ।
वती किती ॥१४॥
तत्त्वेनानुशिष्टास्तेऽप्रतिज्ञेन जानता 1 न एस नियतो मार्गोऽसमीक्ष्य वाक्कृतिः ।
अनुवाद - तत्वानुशिष्ट - यथार्थ तत्व वेत्ता व्याख्याता, हेय और उपादेय पदार्थों को यथावत् समझने वाला सम्यकदृष्टिमुनि को सत् शिक्षा देते हुए कहता है कि आप लोगों ने जिस मार्ग को स्वयत्त किया है वह नियत, न्यायसंगत, उचित नहीं है आप जो सत्साधुओं पर आक्षेप करते हैं वे भी सभी क्षण चिंतन विवेचन से रहित हैं ।
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टीका – अपि च- 'तत्त्वेन' परमार्थेन मौनीन्द्राभिप्रायेण यथावस्थितार्थ प्ररूपणया ते गोशालकमतानुसारिण आजीविकादयः बोटिका वा 'अनुशासिताः ' तदभ्युपगमदोष दर्शन द्वारेण शिक्षां ग्राहिताः, केन ? - अप्रतिज्ञेन ' नास्य मयेदम-सदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञो - रागद्वेषरहितः साधुस्तेन 'जानता' हेयोपादेय पदार्थ परिच्छेद केनेत्यर्थः, कथमनुशासिता इत्याह-योऽयं भवद्भिरभ्युपगतो मार्गों यथा यतीनां निष्किञ्चनतयोपकरणा भावात् परस्परत उपकार्योपकारकभाव इत्येष 'न नियतो' न निश्चितो न युक्तिसङ्गतः अतो येयं वाग् यथाये पिण्डपातं ग्लानस्याऽऽनीय ददति ते गृहस्थाकल्पा इत्येषा 'असमीक्ष्या-निहिता' अपर्यालोच्योक्ता, तथा कृति:' करण मपि भवदीयमसमीक्षितमेव, यथा चापर्यालोचित करणतया भवति भवदनुष्ठानस्य तथा नातिकण्डूयितं इत्यनेन प्राग्लेशतः प्रतिपादितं पुनरपि सदृष्टान्तं तदेव प्रतिणदयति ||१४|| यथा प्रतिज्ञातमाह
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टीकार्थ वास्तव में जो सत्य है, जिनेन्द्र प्रभु के अभिप्राय से अनुरूप है अर्थात् जो पदार्थ जैसा *, उसको उसी तरह से प्ररूपित करना तत्व है, उस द्वारा गौशालकमतानुयायी आजीवकों को तथा दिगम्बरों को अनुशासना - शिक्षा दी जाती है। उनके अभिमत में दोष बतलाकर उन्हें सत्य अर्थ ग्रहण कराया जाता है, समझाया जाता है, किसके द्वारा शिक्षा दी जाती है ? यह प्रश्न उपस्थित करते हुए कहा जाता है कि अप्रतिज्ञपुरुष द्वारा शिक्षा दी जाती है । मिथ्याअर्थ भी मेरे द्वारा समर्थनीय है, ऐसी भावना प्रतिज्ञा कहलाती है, जिसके वह नहीं होती, उसे अप्रतिज्ञ कहा जाता है। जो रागद्वेष से रहित है वह अप्रतिज्ञ है, जो हेय और उपादेय पदार्थो के परिच्छेदक है, पहचान करने में सक्षम है, उन द्वारा शिक्षा दी जाती है, कैसे शिक्षा दी जाती है ? यह बतलाया जा रहा है - आप लोगों ने जो यह सिद्धान्त स्वीकार किया है कि साधु किष्किंचन होता है इसलिए उसे उपकरण बिल्कुल नहीं रखने चाहिए, न उनमें परस्पर उपकार्य उपकार भाव होता है - एक दूसरे का उपकार सेवा या परिचर्या नहीं करनी चाहिए। आपका यह मन्तव्य नियत - निश्चित या युक्ति संगत नहीं है। आप जो यह कहते है कि रुग्ण साधु को जो आहार लाकर देते हैं वे गृहस्थ के सदृश होते हैं। यह आपका अपर्यालोचित पर्यालोचन या चिंतन रहित प्रतिपादन है । आप जो कार्य करते हैं वे भी पर्यालोचन चिंतन शून्य है । तेहरवीं गाथा में ‘नातिकं डू इय सेयं’-नातिकण्डूयितं श्रेयं' इस पद द्वारा जो कहा गया है, उसे दृष्टान्त द्वारा बतलाया जाता है। सूत्रकार अपने पूर्व विवेचनोपक्रम
अनुसार कहते हैं ।
ॐ ॐ ॐ