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उपसर्गाध्ययनं
गाथा में प्रयुक्त दुक्ख का दूसरा अर्थ, उसकी संस्कृत छाया - द्विपक्ष के अनुसार दो पक्ष भी है। तदनुसार राग और द्वेष रूप दो पक्षों का आप सेवन करते हैं। यद्यपि आपका पक्ष दोषपूर्ण है, फिर भी उसके साथ संलग्न मोह के कारण आप उसका समर्थन करते हैं। यह आपका अपने पक्ष के प्रति राग हैं। हमारा सिद्धान्त निष्कलंक निर्दोष है, फिर भी आप उसे दोष युक्त बतलाते हैं, यह आपका उसके प्रति द्वेष है । अथवा आप लोगों द्वारा दो पक्षों के सेवन का एक ओर रूप भी है। आप लोग वक्ष्यमाण-जो आगे कहे जाएँगे सचित्त बीज, उदक पानी, उद्दिश्यकृत- आपके निमित्त, आपके निमित्त उद्देश्य से बनाये गये भोजन का सेवन करने के कारण आप गृहस्थ हैं, गृही तुल्य हैं। साधु का बाना धारण किये रहने से साधु सदृश हैं । यह आप द्वारा द्विपक्ष सेवन है। अथवा आप लोग स्वयं असत् अनुष्ठान सावद्य कर्म करते हैं तथा जो सत् अनुष्ठान - निरवद्य, पापरहित उत्तम कार्य करते हैं उसकी निन्दा करते हैं । यह भी एक प्रकार से द्विपक्ष सेवन है । यह तात्पर्य है ।
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तुब्भे भुंजह पाएसु, गिलाणो अभिहडंमि या । तं च बीओदगं भोच्चा, तमुद्दिसादि जं कडं ॥१२॥
छाया
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अनुवाद
आप लोग पात्रों में-कास्य आदि धातु निर्मित बर्तनों में भोजन करते हैं तथा प्लान रुग्ण साधु के खाने हेतु गृहस्थों के यहां से भोग्य सामग्री मंगवाते हैं। बीज, सचित, उदक - जल का सेवन करते हैं एवं ओद्देशिक अपने लिए बनाया गया आहार लेते हैं ।
यूयं भुङ्क्ष्वं पात्रेषु ग्लान अभ्याहृते यत् । तच्च बीजोदकं भुक्त्वा समुद्दिश्यादियत् कृतम् ॥ आक्षेप लगाते हुए अन्य तीर्थी कहते हैं ।
टीका आजीविकादीनां परतीर्थिकानां दिगम्बराणां चासदाचारनिरूपणायाह- किल वयमपरिग्रहतया निष्किञ्चना एवमभ्युपगमं कृत्वा यूयं भुङ्ध्वं 'पात्रेषु' कांस्यपात्र्यादिषु गृहस्थ भाजनेषु, तत्परिभोगाच्च तत्परिग्रहोऽवश्यंभावी, तथाऽऽहारादिषु मूर्च्छा कुरुध्वमित्यतः कथं निष्परिग्रहाभ्युपगमो भवतामकलङ्क इति, अन्यच्च ‘ग्लानस्य' भिक्षाटनं कर्तुमसमर्थस्य यदपरैर्गृहस्थैरभ्याहृतं कार्यते भवद्भिः, यतेरानयनाविकाराभावाद् गृहस्थानयने च यो दोषसद्भावः स भवतामवश्यंभावीति, तमेव दर्शयति-यच्च गृहस्थैर्बीजोदकाद्युपमदेनापादित माहरं भुक्त्वा ग्लानमुद्दिश्योद्देशकादि ‘यत्कृतं ' यन्निष्पादितं तदवश्यं युष्मत् परिभोगायावतिष्ठते । तदेवं गृहस्थगहे तद्भाजनादिषु भुञ्जानास्तथा ग्लानस्य च गृहस्थैरवे वैयावृत्तयं कारयन्तो यूयमवश्यं बीजोदकादिभोजिन उद्देशिकादिकृतभोजिनश्चेति ॥१२॥किञ्चान्यत्___
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टीकार्थ - आजीवक आदि पर तीर्थिक तथा दिगंम्बर आदि परम्परावर्ती जनों के असत् - प्रतिकूल आचार का प्रतिपालन करने हेतु उन्हें सम्बोधित कर सूत्रकार कहते हैं । आप लोगों का यह प्रतिपादन है कि हम लोग अपरिग्रही हैं । अतएव निष्किंचन - अकिंचन हैं, पर ऐसा कहते हुए, स्वीकार करते हुए भी आप लोग गृहस्थों के काँसी आदि पात्रों में भोजन करते हैं उनके पात्रों में भोजन करने के कारण आपको उस परिग्रह का दोष लगता है । इतना ही नहीं आप लोग आहारादि में मूर्च्छा आसक्ति रखते हैं । अतः आप लोगों द्वारा अपने आपको निष्परिग्रह - परिग्रह रहित मानना किस प्रकार निर्दोष निष्कलंक कहा जा सकता है । भिक्षाटन
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