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'सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
श्री प्रश्न उपस्थित कर विषय के स्पष्टीकरण हेतु बतलाते हैं - वे साधु क्या करते हुए समुत्थित हैं ? अगार बंधन-गृहस्थ के पाश-झाल या फंदे का परित्याग कर सावद्य पापयुक्त कार्यों का परिवर्जन कर संयम के पालन हेतु वे समुत्थित । आत्मा का भाव आत्मत्व कहा जाता है । समग्र कर्मों के कलंक - कालिमा से रहित हो जाना आत्मत्व है । तदर्थ साधु को सावधान एवं जागरूक होकर रहना चाहिए अथवा आत्मत्व मोक्ष या संय का नाम है, सूचक है । अतः साधु को मोक्ष प्राप्ति हेतु संयम पालने में सब ओर से सब प्रकार से संप्रवृत्त. रहना चाहिए । उसे संयमानुसरण - क्रिया में अत्यन्त सजग रहना चाहिए । इसका यह अभिप्राय
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ॐ ॐ ॐ
तमेगे
परिभासंति,
भिक्खूयं साहुजीविणं । परिभासंति, अंतर ते समाहिए ॥ ८ ॥
एवं
छाया तमेके परिभाषन्ते, भिक्षुकं साधु जीविनम् । य एवं परिभाषन्ते, अन्तके ते माधेः ॥
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अनुवाद – उत्तम संयताचार के साथ अपने जीवन निर्वाह में संलग्न साधु के संबंध में कई परमतानुयायी आक्षेप वचन कहते हैं, जिनकी आगे चर्चा होगी, किन्तु वे आक्षेप पूर्ण कथन समाधि मार्ग से दूरवर्ती हैं ।
टीका - निर्युक्तौ यदभिहितमध्यात्मविषीदने तदुक्तम्, इदानीं परवादिवचनं द्वितीयमर्थाधिकारमधिकृत्याहत 'मिति साधुम् 'एके' ये परस्परोपकाररहितं दर्शनमापन्ना अयः शलाकाकल्पाः, ते च गोशालक मतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा वा, त एवं वक्ष्यमाणं परि-समन्ताद्भाषन्ते तं भिक्षुकं साध्वाचारं साधु शोभनं परोपकारपूर्वक जीवितुं शीलमस्य स साधुजीविनमिति, 'ये' ते अपुष्टधर्माण एवं' वक्ष्यमाणं 'परिभाषन्ते' साध्वाचारनिन्दां विदधति त एवंभूता 'अन्तके' पर्यन्ते दूरे 'समाधेः ' मोक्षाख्यात्सम्यग्ध्यानात्सदनुष्ठानात् वा वर्तन्त इति ॥८॥ यत्ते प्रभाषन्तेतदर्शयितुमाह
टीकार्थ - नियुक्ति में बताया जा चुका है कि संयम स्वीकार करने के पश्चात् भीरू पुरुष के चित्त में विषीदन-दु:ख उत्पन्न होता है, वह किस प्रकार होता है ? यह पूर्ववर्ती गाथाओं में प्रतिपादित किया जा चुका है । अब परमतानुयायी साधुओं के संबंध में क्या-क्या आक्षेप करते हैं, यह इस दूसरे अर्थाधिकार में है । आगमकार उस संबंध में बतलाते हैं-जैसे अयशलाकायें- लोहे की शलाकायें परस्पर नहीं मिलती पृथकपृथक रहती हैं इसी तरह अलग-अलग विहरण करने वाले, ऐसे दर्शन में विश्वास रखने वाले, जहाँ एक दूसरे का उपकार करना अविहित है, कतिपय अन्यतीर्थिक, आजीविक दर्शन में आस्थाशील गौशालक मतानुयायी या दिगम्बर परम्परानुगत मतवादी उत्तम आचार युक्त परोपकार पूर्ण जीवन जीने वाले साधुओं के विषय में आक्षेप पूर्ण वचन बोलते हैं, जो आगे वक्ष्यमाण-आगे कहे जायेंगे ।
वे साधुओं के आचार की निन्दा - भर्त्सना करते हैं । वे समाधि मोक्षानुगत सम्यक ध्यान से या सत् अनुष्ठान से दूरवर्ती हैं । वे अन्यमतानुयायी जो आक्षेप पूर्ण वचन बोलते हैं, उनके विषय में शास्त्रकार प्रतिपादित करते हैं ।
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संबद्धसमकप्पा उ, अन्नमन्नेसु गिलाणस्स, जं सारेह
पिंडवायं
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मुच्छिया । दलाह य ॥९॥