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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् विद्याओं की परिकल्पना करते हैं । उन द्वारा हमारा गुजारा हो सकेगा ऐसा सोचते हैं । वे साधु किस प्रकार के हैं । यह प्रश्न उपस्थित करते हुए बतलाते हैं - चित्त की विप्लुति - चंचलता को विचिकित्सा कहा जाता है। उन साधुओं के मन में विचिकित्सा संदेह विद्यमान रहता है कि जो संयम भार हमने ले रखा है, उसे अंत तक ले जाने में, संभाल पाने में हम समर्थ हो पायेंगे या नहीं ? कहा है एक भिक्षु को पहले तो, यदि भोजन मिलता है तो वह रूखा सूखा ठंडा बासी होता है, वैसा भी कभी कभी नहीं मिल पाता । कभी कभी खाने का समय गुजर जाने के बाद प्राप्त होता है और वह भी विरस - रस रहित, स्वाद शून्य । श्रमण को जमीन पर सोना पड़ता है तथा अपने केशों का लुञ्चन करना होता है उन्हें उत्पादित करना होता है। कभी भी जीवन पर्यन्त स्नान नहीं करना होता है और ब्रह्मचर्य का परिपालन करना होता हैं । इस कठिन-क्लेश पूर्ण कार्य कलापों को देखकर अपने संयम जीवन को अन्त तक निभा सकने के संबंध में कई साधु संशयापन्न हो जाते हैंसंदेह करने लगते हैं । जैसे कोई अज्ञ राहगीर राह पर चलता हुआ यह संदेह करता है कि यह रास्ता जहाँ मुझे जाना हैं वहाँ जायेगा या नहीं । उनका चित्त अस्थिर हो जाता है इसी प्रकार अपने संयम के भार का, अभीष्ट का अन्त तक निर्वाह कर पाने के संदर्भ में कई कायर आत्मबलहीन साधु संदेह करते हैं तथा वे निमित्तशास्त्र, 'ज्योतिषविद्या तथा गणितादि द्वारा अपनी जीविका चला लेंगे, ऐसी आशा करते हैं । अब सूत्रकार महापुरुषों के चेष्टित संबंध में दृष्टान्त द्वार आख्यान करते हैं ।
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नाया
जे उ संगाम कालंमि, णो ते पिठ्ठमुवेहिंति, किं परं
छाया ये तु संग्रामकाले ज्ञाताः
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सूरपुरंगमा । सिया ? ॥६॥
मरणं
शूरपुरङ्गमाः ।
नो ते पृष्ठ मुत्प्रेक्षन्ते किं परं मरणं स्यात् ॥
अनुवाद ज्ञात-प्रसिद्धि प्राप्त तथा सुरपुरंगम - शौर्यशील पराक्रमी जनों में अग्रगामी, संग्रामकाल में युदध के अवसर पर ऐसा नहीं सोचते कि पराजित या विपन्न हो जाने पर हम अपना बचाव कैसे करेंगे वे यही सोचते हैं कि युद्ध में मर जाने से बढ़कर तो ओर कोई बात नहीं है ।
टीका- ये पुनर्महासत्त्वाः, तुशब्दो विशेषणार्थ: 'सङ्ग्रामकाले' परानीकयुद्धावसरे ‘ज्ञाताः’ लोकविदिताः, कथम् ? ‘शूरपुरङ्गमाः’ शूराणामग्रगामिनो युद्धावसरे सैन्याग्रस्कन्धवर्तिन इति, त एवम्भूताः सङ्ग्रामं प्रविशन्तो ‘न पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते' न दुर्गादिकमापत् त्राणाय पर्यालोचयन्ति ते चाभङ्गकृतबुद्धयः, अपि त्वेवं मन्यन्ते - किमपरत्रास्माकं भविष्यति ? यदि परं मरणं स्यात्, तच्च शाश्वतं यशः प्रवाहमिच्छतामस्माकं स्तोकं वर्तत इति, यथा चोक्तम्“विशरारूभिरविनश्वरमपि चपलैः स्थास्नु वाञ्छतां विशदम् । प्राणैर्यदि शूराणां भवति यशः किं न पर्याप्तम् ? ॥१॥ ॥६॥
तदेवं सुभटदृष्टान्तं प्रदर्श्य दान्तिक माह
टीकार्थ इस गाथा में जो 'तु' शब्द का प्रयोग हुआ है, वह पूर्व वर्णित भीरू पुरुष की अपेक्षा इस गाथा में वर्णित किये जाने वाले शौर्यशील पुरुष की विशिष्टता बताने हेतु है । जो पुरुष अत्यन्त पराक्रमी हैं, शत्रुसेना के साथ झुंझने में जो लोक में प्रसिद्ध हैं युद्ध छिड़ जाने पर जो सेना के अग्रभाग में रहते हैं वे,
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