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उपसर्गाध्ययनं तब आगे होने वाली किसी बात का चिंतन नहीं करते । संकट के समय संयोग वश यदि पराजय हो जाय तो अपने त्राण के लिए किसी दुर्ग आदि के विषय में पर्यालोचन नहीं करते, युद्ध से भाग छूटने का विचार तो उनके मन में आता ही नहीं । वे यह जानते हैं कि समरभूमि में यदि अधिक से अधिक कोई हानि हो सकती है, तो वह मृत्यु है। उससे बढ़कर कुछ नहीं होता । मृत्यु हम लोगों के लिए सदैव सत्कीर्ति की इच्छा लिए रहती है, एक तुच्छ या नगण्य वस्तु है । कहा है-मनुष्यों के प्राण नश्वर एवं अस्थिर है, उन्हें कुर्बान कर अविनश्वर चिरकाल स्थायी तथा उज्जवल यश स्वायत्त करने की जिन वीरों के मन में अभिवाञ्छा होती है, तो क्या यह प्राण दे देने की तुलना में अधिक मूल्यवान नहीं है। इस प्रकार सुभट-शूरवीर योद्धा का दृष्टान्त प्रस्तुत कर अब सार बतलाते हैं ।
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एवं समुट्ठिए भिक्खू,
आरंभं
छाया एवं समुत्थितो भिक्षुः, व्युत्सृज्यागारबन्धनम् । आरम्भं तिर्य्यक् कृत्वा, आत्मत्वाय परिव्रजेत् ॥
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वोसिज्जाऽगारबंधणं ।
तिरियं कट्टु, अत्तत्ताए परिव्व ॥ ७ ॥
अनुवाद जो भिक्षु श्रमण अगार बन्धन - गृहस्थ के बंधन का तथा आरम्भ-हिंसादि सावद्य कर्मों का व्युत्सर्जन-त्यागकर संयम पालन में तत्पर हुआ है, वह आत्मत्म के लिए, परमात्म साक्षात्कार के लिए अथवा मोक्ष प्राप्ति हेतु संयम का पालन करे ।
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टीका यथा सुभटा ज्ञाता नामतः कुलतः शौर्यत: शिक्षातश्च तथा सन्नद्धवद्धपरिकराः करगृहीतहेतयः प्रतिभटसमितिभेदिनो न पृष्ठतोऽवलोकयन्ति, एवं 'भिक्षुरपि' साधुरपि महासत्त्वः परलोकप्रतिस्पर्द्धिनमिन्द्रिय कषायादिकमरिवर्गं जेतुं सम्यक् - संयमोत्थानेनोत्थित:, तथा चोक्तम्
"कोहं माणं च मायं च, लोहं पंचिंदियाणि य । दुज्जयं चेवमप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं ॥१॥" छाया - क्रोध:मानश्च माया च लोभः पंचेन्द्रियाणि च । दुर्जयं चैवात्मनां सर्वमात्मनि जितेजितम् ॥१॥
किं कृत्वा समुत्थित इति दर्शयति-'व्युत्सृज्य ' त्यक्त्वा' अगार बन्धनं' गृहपाशं तथा' आरम्भं 'सावद्यानुष्ठानरूपं ‘तिर्यक्कृत्वा अपहस्त्य आत्मनो भाव आत्मत्वम् - अशेषकर्मकलङ्करहितत्वं तस्मै आत्मत्वाय, यदिवा - आत्मामोक्ष: संयमो वा तद्भावस्तस्मै-तदर्थं परि - समन्ताद्व्रजेत् - संयमानुष्ठानक्रियायां दत्तावधानो भवे दित्यर्थः ॥७॥
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टीका – नाम, वंश, शौर्य और शिक्षा- युद्ध विषयक योग्यता द्वारा जो संसार में प्रसिद्ध है, जिन्होंने हाथों में शस्त्र धारण कर रखे हैं, युद्ध के लिए कमर कस रखी है विपक्षी शत्रुसेना को छिन्नभिन्न करने में जो तत्पर हैं, वे युद्ध के समय पीछे की ओर मुड़कर नहीं देखते। उसी प्रकार महासत्त्व प्रचुर आत्मबल के धनी साधु , भी परलोक को मिटाने वाले जन्म मरण से छुड़ाने वाले, इन्द्रिय और कषाय आदि शत्रुओं को विजित करने वाले संयम के भार को स्वीकार कर समुत्थित होते हैं, संयम साधना में कृत संकल्प होते हैं उद्यत होते हैं, तब वे पीछे की ओर नहीं देखते । कहा है क्रोध, अभिमान, माया, प्रवचना - लोभ तथा पांच इन्द्रियाँ दुर्जेय हैं । इन्हें जीत पाना बहुत कठिन है, पर एक आत्मा को जीत लेने पर ये सबके सब विजित हो जाते हैं, जीत लिए जाते हैं ।
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