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छाया
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उपसर्गाध्ययनं
एते भोः ! कृत्स्नाः स्पर्शाः परुषाः दुरधिसह्याः ।
हस्तिन इव शर संवीता क्लीवा अवशाः गताः ग्रहम् ॥ इति ब्रवीमि ॥
अनुवाद शिष्यों ! पहले कहे गए उपसर्ग असह्य और दुःखप्रद है, उनसे उद्वेलित होकर कायर पुरुष पुनः गृहस्थ में आ जाते हैं। जैसे बाण से आहत हाथी युद्ध भूमि को छोड़कर भाग जाता है उसी प्रकार आत्मबल रहित पुरुष घबराकर संयम् का परित्याग कर देते हैं, ऐसा मैं कहता हूँ ।
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टीका - उपसंहारार्थमाह- भो इति शिष्यामन्त्रणं, य एत आदितः प्रभृति दंश मशकादयः पीडोत्पादकत्वेन परीषा एवोपसर्गा अभिहिता 'कृत्सना: ' संपूर्णा बाहुल्येन स्पृश्यन्ते - स्पर्शेन्द्रियेणानुभूयन्त इति स्पर्शाः, कथम्भूताः ? 'परुषाः' परुषैरनार्यैः कृतत्वात् पीडाकारिणः, ते चाल्पसत्त्वैर्दुःखेनाधिसह्ययन्ते तांश्चा सहमाना लघुप्रकृतयः केचनाश्लाघामङ्गीकृत्य हस्तिन इव रणशिरसि "शरजाल संविता: " शरशताकुला भङ्गमुपयान्ति एवं 'क्लीबा' असमर्था 'अवशा:' परवशाः कर्मायत्ता गुरुकर्माणः पुनरपि गृहमेव गताः, पाठान्तरं वा 'तिव्वसड्ढे 'त्ति तीव्ररूपसगैरभिद्रुताः 'शठाः' शठानुष्ठानाः संयमं परित्यज्य ग्रहं गताः इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥१७॥ उपसर्ग परिज्ञायाः प्रथमोद्देशक इति
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टीकार्थ प्रस्तुत गाथा में ' भो' शब्द शिष्यों के संबोधन में आया है, जो डांस मच्छर आदि पीड़ा जनक उपसर्ग वर्णित किये गये हैं, वे सभी स्पर्शेन्द्रिय द्वारा अनुभव किये जाते हैं, इसलिए वे स्पर्श कहलाते हैं । वे सभी कष्ट अनार्य पुरुषों द्वारा दिये जाते हैं, वे पीड़ा उत्पन्न करते हैं, अल्प पराक्रमी प्राणी उन्हें सह नहीं सकते, कई ओछी प्रकृति के पुरुष अपनी बढ़ाई करते हुए पहले तो संयम स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु बाणों की चोटों से आहत हाथी जैसे युद्ध भूमि से भाग खड़ा होता है, उसी तरह वे पुरुष भी पूर्व वर्णित परीषहों को सहने में असक्त होकर फिर गृहस्थ में लौट आते हैं वे वास्तव में गुरु कर्मों भारी कर्मों वाले हैं, कहीं कहीं 'तिव्वसढे' - तीव्रशठ यह पाठ मिलता है । इसका तात्पर्य यह है कि तीव्र कठोर उपसर्गों से उत्पीडित तथा असत आचरणशील शठ- दुष्ट पुरुषों ने संयम का परित्याग कर घर को प्रस्थान किया फिर गृहस्थ बन गये, यह मैं कहता हूँ ।
उपसर्ग परिज्ञा संज्ञक तृतीय अध्ययन का पहला उद्देशक समाप्त हुआ ।
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