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उपसर्गाध्ययन अनुवाद - हे तात ! उत्तरोत्तर-एक के बाद एक क्रमशः जन्मे हुए तुम्हारे पुत्र छोटे-छोटे हैं, मधुर भाषी हैं । तुम्हारी स्त्री नवयुवती है, कहीं ऐसा न हो वह किसी दूसरे के यहां चली जाए।
टीका - 'उत्तराः' प्रधानाः उत्तरोत्तर जाता वा मधुरो-मनोज्ञ उल्लापः-आलापो येषां ते तथाविधाः पुत्राः 'ते' तव 'तात' पुत्र ! 'क्षुल्लका' लघवः तथा 'भार्या' पत्नी ते 'नवा' प्रत्यग्रयौवना अभिनवोढा वा मा असौ त्वया परित्यक्ता सती अन्यं जनं गच्छेत्-उन्मार्गगामिनी स्याद्, अयं च महान् जनापवाद इति ।
टीकार्थ – हे तात ! तुम्हारे पुत्र बड़े उत्तम-अच्छे हैं, अथवा एक के बाद एक क्रमशः उत्पन्न हुए हैं । वे नन्हें नन्हें हैं । तुम्हारी पत्नी नवयुवती है तुम्हारे से परित्यक्त हुई-छोड़ी हुई, छोड़ी गई वह किसी अन्य पुरुष के यहाँ न चली जाए, यदि वह उन्मार्ग गामिनी होकर-उल्टा रास्ता अपनाकर वैसे कर ले तो संसार में बड़ी निन्दा होगी।
वय ।
एहि ताय ! घरं जामो, मा य कम्मे सहा वयं । वितियंपि ताय ! पासामो, जामु ताव सयं गिहं ॥६॥ छाया - एहि तात ! गृहं यामो मा त्वं कर्मसहा वयम् ।
द्वितीयमपि तात ! पश्यामो यामस्तावत्स्वकं गृहम् ॥ अनुवाद - हे तात् ! हमारे साथ आओ, घर चले । अब घर में तुम्हें कोई काम नहीं करना होगा। तुम्हारे सब काम हम ही निपटा देंगे । एक बार तो काम से घबरा कर घर छोड़ आये, पर दूसरी बार ऐसा नहीं होगा । तुम्हारे सारे कार्य हम करते रहेंगे । अपने घर चलो ।।
टीका - अपि च जानीमो वयं यथा त्वं कर्मभीरूस्तथापि 'एहि' आगच्छ गृहं 'यामो' गच्छामः। मा त्वं किमपि साम्प्रतं कर्मकृथाः, अपि तु तव कर्मण्युपस्थिते वयं सहायका भविष्यामः-साहाय्यं करिष्याम। एक वारं तावद् गृह कर्मभिर्भग्नस्त्वं तात ! पुनरपि द्वितीयं वारं पश्यामो' द्रक्ष्यामो यदस्माभिःसहायैर्भवतो भविष्यतीत्यतो 'यामो' गच्छामः तावत् स्वकं गृहं कुर्वेतदस्मद्वचनमिति ॥६॥ किञ्च - ___टीकार्थ – पारिवारिक जन कहते हैं-हे तात् ! हम जानते हैं, तुम कर्म भीरू हो-घर के काम से डरते हो, तथापि आओ, घर चले । अब से आगे तुम कोई काम न करना । कार्य उपस्थित होने पर-काम करने का अवसर आने पर हम तुम्हारे सहायक होंगे, सहायता करेंगे । हे तात ! एक बार घर के काम से घबराकर तुम घर छोड़ गए, किन्तु दूसरी बार हम तुम्हारे सहायक होने का-तुम्हारे कार्यों में पूरी मदद करने का ध्यान रखेंगे इसलिए अपने घर चलो । हमारा कहना मानो।
गंतुं ताय ! पुणो गच्छे, ण तेषा समणो सिया । अकामगं परिक्कम्मं, को ते वारेउमरिहति ? ॥७॥ छाया - गत्वा तात ! पुनरागच्छेनतेनाश्रमणः स्याः । अकामकं पराक्रमन्तं कस्त्वां वारयितुमर्हति ॥
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