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उपसर्गाध्ययनं टीकार्थ - हे उत्तम व्रत धारिन्-मुनिवर्य प्रव्रज्या-दीक्षा लेकर आपने मन और इन्द्रिय में जो शांति प्राप्त की है, जिन महाव्रतादि नियमों का परिपालन करने में लगे हैं, वे गृहस्थ के रूप में रहते हुए भी-गृही जीवन का अनुपालन करते हुए भी वे वैसे ही बने रहेंगे, क्योंकि मनुष्य द्वारा संचित पुण्य पाप कभी नष्ट नहीं होते।
चिरं वूइजमाणस्स, दोसो दाणिं कुतो तव ? । इच्चेव णं निमंति, नीवारेण व सूयरं ॥१९॥ छाया - चिरं विहरतः दोष इदानीं कुतस्तव ।
इत्येव निमन्त्रयन्ति नीवारेणेव सूकरम् ॥ अनुवाद - मुनिवर्य ! आप चिरकाल से-बहुत समय से संयम का परिपालन करते आ रहे हैं, अब भोगमय जीवन स्वीकार करने पर भी आपको दोष नहीं लग सकता । यों भोग भोगने हेतु आमंत्रित कर लोग एक मुनि को उसी तरह सांसारिक जाल में फंसा लेते हैं, जैसे नीवार-चावल के दानों के लोभ से लोग सुअर को जाल में फंसा लेते हैं ।
___टीका - चिरं 'प्रभूतं कालं संयमानुष्ठाने 'दूइज्जमाणस्स' त्ति विहरतः सतः ‘इदानी' साम्प्रतं दोषः कुतस्तव ?, नैवास्तीति भावः, इत्येवं हस्त्यश्वरथादिभिर्वस्त्रगंधालङ्कारादिभिश्च नानाविधैरूपभोगोपकरणैः करणभूतैः 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'तं' भिक्षु साधुजीविनं 'निमन्त्रयन्ति' भोगबुद्धिं कारयन्ति दृष्टान्तं दर्शयति-तथा 'नीवारेण' व्रीहिविशेषकणदानेन 'सूकरं' वराहं . कूटके प्रवेशयन्ति एवं तमपि साधुमिति ॥१९॥
टीकार्थ - पूर्ववर्णित राजा आदि साधु से अनुरोध करते हैं कि मुनिवर्य ! आप बहुत समय से संयम का अनुष्ठान-परिपालन करते हुए आ रहे हैं । अब यदि आप भोग भोगें तो कोई दोष नहीं है, यों कहते हुए वे लोग हाथी, घोड़े, रथ आदि यान वाहनों तथा वस्त्र, सुगंधित पदार्थ एवं आभूषण आदि तरह तरह के भोगोपयोगी साधनों द्वारा उस साधु में भोगमय भावना-बुद्धि पैदा करते हैं, जो संयमपूर्वक अपना जीवन यापन कर रहा है । इस संबंध में एक दृष्टान्त उपस्थित किया है कि जैसे नीवार-एक विशिष्ट जाति के चावलों के दानों का लोभ दिखाकर सुअर को फंदे में फांस लिया जाता है, उसी तरह साधु को भी वे लोग असंयम के फंदे में फंसा लेते हैं।
चोइया भिक्खचरियाए, अचयंता जवित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति, उजाणंसि व दुब्बला ॥२०॥ छाया - चोदिताः भिक्षुचर्ययाऽअशक्नुवन्तो यापयितुम् ।
तत्र मंदाः विषीदन्ति उद्यान इव दुर्बलाः ॥ अनुवाद - वे मंद अज्ञानी पुरुष जिन्होंने साधु का बाना अपना रखा है, उस साधु समाचारी का पालन नहीं कर सकते, जिसके पालन हेतु आचार्य आदि गुरुजनों ने जिन्हें प्रेरित किया । फलत: वे उसी तरह संयम का परित्याग कर देते हैं, जैसे ऊँचे मार्ग पर गमनोद्यत दुर्बल - क्षतिहीन बैल गिर पड़ते हैं।
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