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उपसर्गाध्ययनं टीकार्थ - रूक्ष का तात्पर्य संयम है । रूक्ष का सामान्य अर्थ रूक्खा या नीरस होता है । भौतिक सुख चाहने वालों के लिए संयम भी नीरस है । जो पुरुष उस संयम का पालन करने में अक्षम है, अनशन आदि बाह्य तथा स्वाध्याय ध्यानादि आभ्यन्तर विविध तपश्चरण से भय खाते हैं, डरते है, वे अज्ञानी संयमपथ पर आगे बढ़ने में उसी तरह विषाद का अनुभव करते है जैसे ऊँचे मार्ग पर चढ़ता हुआ कमजोर वृद्ध बैल क्लेशाविष्ट होता है । ऊँचे मार्ग पर चढ़ते हुए तो युवा बैल को भी अवसाद- कष्ट होना सम्भावित है । इसी भाव का दिग्दर्शन कराने हेतु यहां जरग्गवा-जरद्व-जीर्णपद का प्रयोग हुआ है । जो पुरुष धैर्यशील, दृढ़संहनन युक्त तथा विवेकशील होते है वे भी आवर्तो-विघ्नों द्वारा अवसन्न पीडित हो जाते हैं । फिर जिनकी ऊपर चर्चा आई है, उनका तो कहना ही क्या । .
एवं निमंतणं लद्धं, मुच्छिया गिद्ध इत्थीसु ।
अज्झोववन्ना कामेहिं चोइजंता गया गिहं ॥२२॥तिबेमि॥ छाया - एवं निमन्त्रणं लब्धवा मूर्छिताः गृद्धाः स्त्रीषु ।
अध्युपपन्नाः कामेषु चोद्यमानाःगता गृहम् ॥ अनुवाद - जैसा पहले वर्णित हुआ है-पारिवारिक जन आदि द्वारा उपस्थापित भोग भोगने का आमन्त्रण प्राप्त कर काम भोग में लोलुप, स्त्रियों में विमुग्ध-आसक्त सांसारिक विषयों में अध्युपपन्न-उस ओर आकृष्ट पुरुष संयम पालन हेतु गुरु आदि द्वारा प्रेरणा किये जाने पर भी वे गृहस्थ में चले जाते हैं।
टीका - 'सर्वोपसंहारमाह-एवं' पूर्वोक्तया नीत्या विषयोपभोगोपकरणदान पूर्वक निमन्त्रणं' विषयोपभोगं प्रति प्रार्थनं लब्ध्वा' प्राप्य 'तेषु' विषयोपकरणेषु हस्त्यश्वरथादिषु 'मूर्च्छिता' अत्यन्तासक्ताः तथा स्त्रीषु 'गृद्धा' दत्तावधाना रमणीरागमोहिताः तथा 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'अध्युपपन्ना:' कामागतचित्ता: संयमेऽवसीदन्तोऽपरेणोद्युक्तविहारिणा नोद्यमानाः-संयमं प्रति प्रोत्साह्यमाना नोदनां सोढुमशक्नुवन्तः सन्तोगुरुकर्माण : प्रव्रज्यां परित्याल्पसत्त्वा गृहं गतागृहस्थीभूताः इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२२॥
टीकार्थ - जो जीव कर्मों से भारी होते हैं, जैसा पहले वर्णन किया गया है, जब उनके समक्ष हाथी, घोड़े, रथ आदि सांसारिक विषय भोग सम्बन्धी सामग्री उपस्थापित करते हुए लोगों द्वारा भोग भोगने की अभ्यर्थना की जाती है, तब वे उनमें अत्यन्त आसक्त होते हुए स्त्रियों के प्रति लोलुप बने हुए अत्यन्त कामासक्त बनते हुए संयम के पालन में शिथिल हो जाते हैं, उस समय शास्त्रीय मर्यादापूर्वक संयम का परिपालन करने वाले किसी मुनि द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी वे उत्साहित नहीं होते, संयम पालन में समर्थ नहीं होते, वे आत्मपराक्रम रहित पुरुष प्रव्रजित-संयम में दीक्षित जीवन का परित्याग कर फिर गृहस्थ बन जाते हैं । इति शब्द यहाँ समाप्ति का सूचक है, ब्रवीमि बोलता हूँ यह पूर्ववत यहाँ योजनीय है ।
उपसर्ग परिज्ञा अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त हुआ ।
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