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उपसर्गाध्ययनं छाया - राजानो राजमात्याश्च ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः ।
निमन्त्रयन्ति भोगैर्भिक्षुकं साधुजीविनम् ॥ अनुवाद - नृपति गण उनके अमात्य - मंत्रीवृन्द, ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय ये सभी साधुजीवि-जीवन में शुद्ध संयम पूर्ण आचार का पालन करने वाले मुनि को भोगमय जीवन में प्रत्यावृन्त होने हेतु, लौटने हेतु आमंत्रित करते हैं।
टीका - 'राजानः' चक्रवर्त्यादयो 'राजामात्याश्च' मन्त्रिपुरोहितप्रभृतयः तथा ब्राह्मणा अथवा 'क्षत्रिया' इक्ष्वाकुवंशजप्रभृतयः, एते सर्वेऽपि 'भौगैः' शब्दादिभिर्विषयैः 'निमन्त्रयन्ति' भोगोपभोगं प्रत्यभ्युपगमं कारयन्ति कम् ? भिक्षुकं 'साधुजीविणमि' ति साध्वाचारेण जीवितुं शीलमस्येति (साधुजीवी तं) साधुजीविमिति, यथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिना नानाविधैर्भोगैश्चित्रसाधुरूपानिमन्त्रित इति । एवमन्येऽपि केन चित्सम्बन्धेन व्यवस्थिता यौवनरूपादिगुणोपेतं साधुं विषयोद्देशेनोपनिमन्त्रयेयुरिति ॥१५॥ .
टीकार्थ - चक्रवर्ती और बड़े-बड़े नृपतिवृन्द, मंत्री, पुरोहित आदि तथा ब्राह्मण और उनमें इक्ष्वाकु आदि वंशों में उत्पन्न उत्तम क्षत्रिय-ये सभी शब्दादि विषयों के माध्यम से आमंत्रित करते हैं। भोगोपभोगमय जीवन को स्वीकार करने हेतु अनुरोध करते हैं । विषय के स्पष्टीकरण हेतु प्रश्न उपस्थित करते हुए कहते हैं-किसे आमंत्रित करते हैं ? साधुजीवी-शुद्ध आचार-आचार पूर्ण जीवन जीने वाले भिक्षु या मुनि को आमंत्रित करते हैं । जैसे ब्रह्मदत्त नामक चक्रवर्ती ने चित्र नामक मुनि को नाना प्रकार के भोगों द्वारा आकृष्ट कर उन्हें भोगने हेतु आमंत्रित किया था । उसी प्रकार किसी सम्बंधों में व्यवस्थित-जुड़े हुए अन्य पुरुष भी यौवन सौन्दर्य आदि गुणयुक्त पुरुष को सांसारिक भोगों के उद्देश्य में उपनिमंत्रित-गृही जीवन में लौटने हेतु आमंत्रित करते
ॐ ॐ ॐ हत्थऽस्सरहजाणेहिं, विहारगमणेहि य ।
भुजं भोगे इमे सग्घे, महारिसी ! पूजयामु तं ॥१६॥ छाया - हस्त्यश्वरथयानै विहारगमनैश्च
भुक्ष्व भोगानिमान् श्लाध्यान्महर्षे पूजयामस्त्वाम् ॥ अनुवाद - पूर्व वर्णित भूपति आदि मुनि को सम्बोधित कर कहते हैं-हे महर्षे ! आप हाथी, घोड़े, रथ आदि विविध यानों पर आरूढ़ होकर विहरण करे-उद्यान आदि में विचरण करे । श्लाघ्य-प्रशंसनीय उत्तम भोगों को भोगे । चलिए हम आपका पूजन-सम्मान, सत्कार करे ।
टीका - एतदेव दर्शयितुमाह-हस्त्यश्वरथयानैः तथा 'विहारगमनैः' विहरणं क्रीडनं विहारस्तेन गमनानि विहारगमनानि-उद्यानादौ क्रीडया गमनानीत्यर्थः, चशब्दादन्यैश्चेन्द्रियानुकूलैर्विषयैरूपनिमन्त्रयेयुः तद्यथा-भुड्क्ष्व भोगान्' शब्दादिविषयान् ‘इमान्' अस्माभिढौंकितान् प्रत्यक्षासन्नान् ‘श्लाध्यान्' प्रशस्तान् अनिन्द्यान् ‘महर्षे' साधो ! वयं विषयोपकरणढौकनेन 'त्वां' भवन्तं 'पूजयामः' सत्कारयाम इति ॥१६|| किश्चान्यत् -
टीकार्थ - उपर्युक्त भाव को अभिव्यक्त करने हेतु सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं-यह संभावित है कि राजा आदि मुनि के समीप आकर उन्हें आमंत्रित करे, उनसे आग्रह करे कि हाथी, घोड़े रथ आदि यानों पर
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