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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् पाश रूपी फंदे में बंधने की आकांक्षा न करे । यदि प्रतिकूल-अप्रिय उपसर्ग आए तो जीवन की कामना न करे। प्राणों की बाजी लगाकर उसका सामना करे । वह असत् कर्म का अनुसरण करते हुए सांसारिक जीवन जीने की इच्छा न रखे । क्या करके ? क्या सुन करके ? यह प्रश्न उठाते हुए कहा जाता है कि श्रुत-सम्यक्-ज्ञान, चारित्र-सम्यक् आचार मूलक धर्म जो सर्वोत्तम है, तीर्थंकर भाषित है, उसे सुनकर वह ऐसा करे ।
अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेइया । बुद्धा जत्थावसप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं ॥१४॥ छाया - अथेमे सन्त्यावर्ताः काश्यपेन प्रवेदिताः ।
वृद्धाः यत्रापसर्पन्ति सीदन्त्यबुधाः यत्र ॥ अनुवाद - पूर्वोक्त विवेचन के अनन्तर अब आवर्त-भंवर या चक्र वर्णित होंगे, जो काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित-प्ररूपित या व्याख्यात हुए हैं । बुद्ध-बोध युक्त पुरुष, ज्ञानी जन उनसे दूर रहते हैं । अबुद्ध-अज्ञानी पुरुष उसमें फँस जाते हैं और कष्ट पाते हैं।
___टीका - अन्यच्च-'अथे' त्यधिकारान्तरदर्शनार्थः, पाठान्तरं वा 'अहो' इति, तच्च विस्मये, ‘इमे' इति एते प्रत्याक्षासन्नाः सर्वजनविदितत्वात्, 'सन्ति' विपन्ते वक्ष्यमाणा आवर्तयन्ति-प्राणिनं भ्रमयन्तीत्यावर्ताः, तत्र द्रत्यावर्ता: नद्यादेः भावावर्तास्तूत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंपादकसंपत्प्रार्थनाविशेषाः, एते चावर्ताः 'काश्यपेन', श्री मन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना उत्पन्नदित्यज्ञानेन 'आ (प्र) वेदिताः' कथिताः प्रतिपादिताः 'यत्र' येषु सत्सु 'बुद्धा' अवगतत्त्वा आवर्तविपाकवेदिनस्तेभ्यः 'अपसर्पन्ति' अप्रमत्ततया तदूरगामिनो भवन्ति, अबुद्धास्तु निर्विवेकतया येष्ववसीदन्ति-आसक्तिं कुर्वन्तीति ॥१४|| तानेवावर्तान् दर्शयितुमाह -
टीकार्थ - यहां जो "अथ" शब्द का प्रयोग हुआ है, वह दूसरे अधिकार प्रकरण का बोध कराने हेतु है । 'अथ' के स्थान में पाठान्तर के रूप में "अहो" भी प्राप्त होता है । अहो विस्मय या आश्चर्य का द्योतक है । जो प्राणियों को संसार में आवर्तित करता है-घूमाता है, चक्कर कटवाता है, उसे आवर्त कहा जाता है उनका आगे विवेचन किया जायेगा । इस गाथा में जो "इमे" शब्द का प्रयोग हुआ है वह सूचित करता है कि वे आवर्त सर्व विदित है-सब उन्हें जानते हैं, वे प्रत्यक्ष हैं सन्निकट वर्ति हैं । आवर्त दो प्रकार के हैंद्रव्यावर्त एवं भावावर्त । नदी आदि की भ्रमियां-भंवर द्रव्यावर्त हैं। उत्कट-तीव्र महामोहनीय कर्म के उदय से आपादित-उत्पन्न विषय भोगों की अभिलाषा को पूर्ण करने वाली संपत्ति की अभ्यर्थना भावावर्त है । जिन्हें दिव्य ज्ञान-सर्वज्ञत्व प्राप्त था, उन प्रभु महावीर ने आवर्त का स्वरूप आप्रवेदित-आख्यात किया है । तदनुसार जो बुद्ध-विवेकशील जन आवर्तों की फल निष्पत्ति जानते हैं, वे उनके उपस्थित होने पर अप्रमत्त-प्रमाद शून्य, जागरूक रहते हैं, उनसे दूरगामी हो जाते हैं-हट जाते हैं किन्तु अबुद्ध-अतत्त्ववेत्ता अविवेकवश उनमें आसक्त होकर अत्यधिक दु:ख भोगते हैं । उन आवों का दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार निरूपित करते हैं -
रायाणो रायऽमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिया । निमंतियंति भोगेहिं, भिक्खूयं साहुजीविणं ॥१५॥
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