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उपसर्गाध्ययनं
अनुवाद पारिवारिक जनों की आसक्ति, या स्नेह को लांघ पाना मनुष्यों के लिए उसी तरह कठिन है, जिस प्रकार समुद्र के पार उतरना । क्लीव - पौरूषहीन, आत्म बलरहित पुरुष संबंधियों के मोह से मूर्च्छित होकर अपना आपा भूलकर कष्ट पाते हैं ।
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टीका सङ्गदोषदर्शनायाह- 'एते' पूर्वोक्ताः सज्यन्त इति सङ्गा - मातृ पित्रादिसम्बन्धाः कर्मोपादान हेतवः, मनुष्यणां 'पाताला इव समुद्रा इवाप्रतिष्ठितभूमितलत्वात् ते 'अतारिम' त्ति दुस्तराः, एवमेतेऽपि सङ्गा अल्पसत्त्वैर्दुःखेनातिलङ्घयन्ते, 'यत्र च ' येषु सङ्गेषु 'क्लीबा' असमर्थाः 'क्लिश्यन्ति' क्लेशमनुभवन्ति, संसारान्तर्वर्तिनो भवन्तीत्यर्थः, किंभूताः ? ' ज्ञातिसङ्गै ' पुत्रादिसम्बन्धै: 'मूर्च्छिता' गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तो, न पर्यालोचयन्त्यात्मानं संसारान्तर्वर्तिनमेवं क्लिश्यन्तमिति ॥ १२ ॥ अपिच
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टीकार्थ • जो आसक्त कर लेते हैं, जीव को आकृष्ट कर लेते हैं, बांध लेते हैं, वे सङ्ग कहे जाते हैं, माता पिता आदि स्वजनों के साथ रहे संबंध को सङ्ग कहते हैं । वह जीव को कर्मबंधन में बांधने का हेतु है जैसे पाताल-तलरहित अगाध समुद्र को मनुष्य तैरकर पार नहीं कर सकते, उसी प्रकार इन आसक्तियों को अल्पसत्व-आत्मबलहीन जीव लांघ नहीं सकते, पार नहीं कर सकते, मातापिता आदि की आसक्ति में बंधे हुए वे क्लीव- पुरुषार्थहीन व्यक्ति कष्ट भोगते हैं । वे सदा संसार में पड़े रहते हैं, पुनः वे कैसे हैं ? ऐसा प्रश्न उठाकर इसे स्पष्ट किया जाता है, वे पुत्र आदि के संबंधों में मूर्च्छित, गृद्ध लोलुप जीव संसार में पड़कर कष्ट पाते हुए अपनी आत्मा के संबंध में जरा भी पर्यालोचन, चिन्तन, मनन आदि न करते हुए क्लेश भोगते रहते हैं ।
छाया
तं च भिक्खू परिन्नाय, सव्वे संगा महासवा । जीवियं नावकंखिज्जा, सोच्चा
धम्ममणुत्तरं ॥१३॥
तं च भिक्षुः परिज्ञाय सर्वे सङ्गा महाश्रवाः । जीविते नावकाङ्क्षेत, श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् ॥
. अनुवाद संबंधी जनों के साथ रही आसक्ति को भली भांति जानकर साधु उसका परित्याग कर दे, क्योंकि ये सभी सम्बन्ध महाआश्रव - कर्म बांधने के बड़े द्वार है श्रोत है । साधु अनुत्तर- सर्वोत्तम, अर्हत प्ररूपित धर्म का श्रवण कर असंयम मय जीवन की आकांक्षा न करे ।
टीका 'तं च ' ज्ञातिसङ्गं संसारैकहेतुं भिक्षुर्शपरिज्ञया (ज्ञात्वा ) प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । किमिति ?, यतः 'सर्वेऽपि' ये केचन सङ्गास्ते 'महाश्रवा' महान्ति कर्मण - आश्रवद्वाराणि वर्तन्ते । ततोऽनुकूलैरूपसर्गैरुपस्थितैरसंयम जीवितं गृहावासपाशं 'नाभिकाङ्क्षेत' नाभिलषेत्, प्रतिकूलैश्चोपसगै: सद्भिर्जीविताभिलाषी न भवेद्, असमञ्जसकारित्वेन भवजीवितं नाभिकाङ्क्षेत् । किं कृत्वा ? ' श्रुत्वा' निशम्यावगम्य, कम् ? - धर्मं श्रुतचारित्रारव्यं, नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुतरं प्रधानं मौनीन्द्रमित्यर्थः ॥१३॥
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टीकार्थ - स्वजनों की आसक्ति का दोष बताने हेतु सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं-'स्वजन वर्गों से संसर्ग रखना, उनमें आसक्त बने रहना, संसार में आवागमन का मुख्य हेतु है । साधु ज्ञ परिज्ञा द्वारा उसे जाने, प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उसका प्रत्याख्यान- परित्याग करे क्योंकि जितने संग-संबंध हैं, वे कर्मों के आने के बहुत बड़े आश्रवद्वार हैं । इसलिए अनुकूल - प्रिय या मन को अच्छे लगने वाले उपसर्गों के आने पर साधु संयम रहित जीवन या गृह
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