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_श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् सवार होकर आप बाग बगीचों में क्रीड़ा, मनोविनोद आदि के निमित्त-चित्त बहलाने हेतु विहरण करे-घूमें । यहां जो च शब्द का प्रयोग हुआ है उसका अभिप्राय यह है हम लोगों द्वारा उपस्थापित-अर्पित श्लाघ्य-प्रशस्त अनिन्द्य उत्तमोत्तम शब्दादि विषयों का उपभोग करे । हे महर्षे ! हम लोग विषयोपकरण-भोगोपभोग की सामग्री प्रस्तुत करते हुए आपका सम्मान सत्कार करते हैं ।
वस्थगंधमलंकारं, इत्थीओ समणाणि य । भुंजाहिमाई, भोगाई आउसो ! पूजयामु तं ॥१७॥ छाया - वस्त्रगन्धमलंकारं स्त्रियः शयनासने च ।
भुक्ष्वेमान् भोगान् आयुष्मन् पूजयामस्त्वाम् ॥ अनुवाद - हे चिरंजीव ! वस्त्र, गंध-सुगन्धित पदार्थ, अलंकार-आभूषण, रमणियाँ, शय्या आदि भोग्य पदार्थों का आप भोग करें । हम आपका सम्मान करते हैं, सत्कार करते हैं ।
टीका - 'वस्त्रं' चीनांशुकादि 'गन्धा' कोष्टपुटपाकादयः, वस्त्राणि च गन्धाश्च वस्त्रगन्धमिति समाहारद्वन्द्वः तथा 'अलङ्कारम्' कटककेयूरादिकं तथा 'स्त्रियः' प्रत्यग्रयौवनाः 'शयनानि' च पर्यङ्कतूली प्रच्छदपटोपधानयुक्तानि, इमान् भोगानिन्द्रियमनोऽनुकूलानस्माभिढौंकितान् ‘भुक्ष्व' तदुपभोगेन सफलीकुरू, हे आयुष्मन् ! भवन्तं 'पूजयामः' सत्कारयाम इति ॥१७॥
टीकार्थ - यहां वस्त्र और गंध दोनों से मिलकर बना वस्त्र गंध पद समाहारार्थक द्वन्द्व समास है। चीनाशुक-रेशम आदि वस्त्र, गंध-कोष्ट पुटपाक आदि सुगन्धित पदार्थ, कटक-कडे, केयूर-बाजूबन्द या भुजबन्द आदि गहने, यौवनवती रमणियां तथा रूई से भरे बिछौने तकियों आदि से युक्त पलंग-इन भोगों का आप उपभोग करें, ये इन्द्रियों और मन को आल्हादित करने वाले हैं, हमारे द्वारा आपके सम्मुख उपस्थापित है, इनका उपयोग कर इन्हें सफल बनाये । हे चिरंजीव ! हम आपका पूजन-सत्कार सम्मान करते हैं।
जो तुमे नियमो चिण्णो, भिक्खूभावंमि सुव्वया । . .
आगारमावसंतस्स, सव्वो संविजए तहा ॥१८॥ छाया - यस्त्वया नियमश्चीर्णो भिक्षुभावे सुव्रत ।
अगारमावसतस्तव सर्वः संविद्यते तथा ॥ अनुवाद - हे उत्तमव्रत धारिन् ! आप भिक्षु भाव में आर्हती दीक्षा स्वीकार कर जिन नियम-महाव्रतादि के परिपालन में लगे हुए हैं, गृहवास-घर में रहते हुए भी वे सब उसी तरह से रह पायेंगे, परिपालित होते रहेंगे।
टीका - अपि च-यस्त्वया पूर्वं 'भिक्षुभावे' प्रव्रज्यावसरे 'नियमो' महाव्रतादिरूपः 'चीर्णः' अनुष्ठितः इन्द्रियनोइ न्द्रियोपशमगतेन हे सुव्रत ! स साम्प्रतमपि अगारं' गृहम् 'आवसतः' गृहस्थभावं सम्यगनुपालयतो भवतस्तथैव विद्यत इति, न हि सुकृतदुष्कृतस्यानुचीर्णस्य नाशोऽस्तीति भावः ॥१८॥ किञ्च -
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