________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् - अनुवाद - हे तात ! एक बार घर चलकर फिर वापस लौट आना । ऐसा करने से तुम अश्रमण नहीं हो जाओगे-तुम्हारा श्रामण्य मिट नहीं जायेगा । पुनश्च घर में कामना या आसक्ति के बिना नि:संग भाव से पराक्रम-उद्यम करते हुए तुम्हें वहाँ कौन रोक सकता है।
टीका - 'तात' पुत्र ! गत्वा गृहं स्वजनवर्गं दृष्ट्वा पुनरागन्ताऽसि, नच 'तेन' एतावता गृह गमन मात्रेण त्वमश्रमणो भविष्यसि, 'अकामगं' ति अनिच्छन्तं गृहव्यापारेच्छारहितं 'पराक्रमन्तं' स्वाभिप्रेतानुष्ठानं कुर्वाणं कः त्वां भवन्तं वारयितुं'निषेधयितुम् अर्हति योग्यो भवति, यदिवा-'अकामगंति वार्द्धकावस्थायांमदनेच्छाकामरहितं संयमानुष्ठानं प्रति कस्त्वामवसरे प्राप्ते कर्मणि प्रवृत्तं वारयितुमर्हतीति ॥७॥
टीकार्थ - हे तात ! घर जाकर, अपने पारिवारिक जनों को देखकर फिर लौट आना । केवल घर जाने मात्र से तुम श्रामण्य रहित नहीं हो जाओगे-वैसा करने मात्र से तुम्हारा साधुत्व नष्ट नहीं होगा। गृह व्यापार में-गृहस्थ के कार्यों में इच्छा रहित-अनासक्ति पूर्वक, अपने अभिप्रेत-अभिरूचि के अनुसार उद्यत रहते हुए तुम्हें कौन रोक सकता है ? अथवा वृद्धावस्था आने पर जब तुम्हारी काम वासना अपगत हो जायेगी, तब संयम की साधना में पराक्रमशील उद्यमशील होते तुम्हें कौन निवृत्त कर सकता है।
जं किंचि अणगं तात ! तंपि सव्वं समीकतं । हिरण्णं ववहाराई, . तंपि दाहामु ते वयं ॥८॥ छाया - यत् किंचिद्दणं तात ! तत्सर्व समीकृतम् ।
हिरण्यं व्यवहारादि तदपि दास्यामोवयम् ॥ अनुवाद - हे तात तुम्हारे ऊपर जो कर्ज था, वह हमने परस्पर समीकृत कर लिया है-बाँटकर ले लिया है अब तुम्हें व्यवहार के लिए जितने धन की जरूरत होगी वह हम देंगे ।
टीका - अन्यच्च-'तात' पुत्र ! यत्किमपि भवदीयमृणजातमासीत्तत्सर्वमस्माभिः सम्यविभज्य 'समीकृतं' समभागेन व्यवस्थापितं,यदि वोत्कटंसत् समीकृतं-सुदेयत्वेन व्यवस्थापितं, यत्त 'हिरण्यं द्रव्यजातं व्यवहारादावुपयुज्यते, आदि शब्दात् अन्येन वा प्रकारेण तवोपयोगं यास्यति तदपि वयं दास्यामः, निर्धनोऽहमिति मा कृथा भयमिति ॥८॥ उपसंहारार्थमाह -
टीकार्थ - हे तात ! तुम पर जो कर्ज था, हमने वह समीकृत कर दिया है-आपस में बराबर-बराबर बाँटकर व्यवस्थित कर दिया है । अथवा जो तुम पर उत्कट-भारी ऋण था, उसे हमने सुदेय बना दिया है ऐसी व्यवस्था कर दी है कि वह आसानी से चुकाया जा सके । अब से आगे तुम्हें वैयक्तिक आवश्यकता, व्यवसाय आदि अन्यान्य कार्यों में उपयोग हेतु जो धन अपेक्षित होगा, वह सब हम देंगे । अतः तुम कभी मन में यह डर न लाना कि मैं धन हीन हूँ, प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए आगे कहते हैं ।
इच्चेव विबद्धो
णं सुसेहंति,
नाइसंगेहि,
कालुणीय समुट्ठिया । .
ततोऽगारं पहावइ ॥९॥
-
214