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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
छाया पिता ते स्थविरस्तात ! स्वसा ते क्षुल्लिकेयम् ।
भ्रातरस्ते स्वकास्तात ! सोदराः किं जहासि नः ॥
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अनुवाद - पारिवारिक जन साधु से कहते हैं कि तात ! ये तुम्हारे पिता वृद्ध हैं, तुम्हारी यह बहिन अभी छोटी है, ये तुम्हारे सहोदर - एक माँ के पेट से जन्मे भाई हैं ! तुम हमारा क्यों परित्याग कर रहे हो ।
टीका हे 'तात' ! पुत्र ! पिता 'ते' तव 'स्थविरो' वृद्धः शतातीकः 'स्वसा' च भगिनी तव 'क्षुल्लिका' लघ्वी अप्राप्तयौवना 'इमा' पुरोवर्तिनी प्रत्यक्षेति, तथा भ्रातरः 'ते' तव स्वका 'निजास्तात' ! 'सोदरा' एकोदराः किमित्यस्मान् परित्यजसीति ॥३॥
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टीकार्थ - हे तात ! हे पुत्र ! तुम्हारे पिता वृद्ध हैं, उनकी उम्र सौ वर्ष से भी ज्यादा है । तुम्हारी यह सामने खड़ी बहिन छोटी है, अभी युवती नहीं हुई है । ये तुम्हारे सोदर एक ही माँ के उदर से जन्मे हुए सगे भाई तुम्हारे समक्ष हैं। तुम हमारा परित्याग क्यों कर रहे हो ।
ॐ ॐ ॐ
मायरं पियरं पोस, एवं एवं खु लोइयं ताय !, जे
छाया मातरं पितरं पोषय, एवं
लोको भविष्यति ।
एवं खलु लौकिकं तात ! ये पालयन्ति च मातरम् ॥
'अनुवाद - हे तात! माता पिता का पोषण करो। ऐसा करने से ही तुम्हारा परलोक सुधरेगा । यही लोकाचार है । इसी तरह लोग अपने मां बाप का पालन पोषण करते हैं ।
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टीका तथा 'मायरमित्यादि, 'मातरं' जननीं तथा 'पितरं' जनयितारं 'पुषाण' बिभृहि, एवं च कृते तवेहलोकः परलोकश्च भविष्यति, तातेदमेव "लौकिकं" लोकाचीर्णम्, अयमेव लौकिकः पन्था यदुतवृद्धयोर्मातापित्रोः प्रति पालमिति, तथा चोक्तम्
छाया
लोगो भविस्सति । पालंति य मायरं ॥४॥
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"गुरवो यत्र पूज्यन्ते, यत्र धान्यं सुसंस्कृतम् । अदन्त कलहो यत्र तत्र शक्र ! वसाम्यहम् ॥१॥” इति ॥ ४ ॥ अपि च
टीकार्थ - हे पुत्र ! तुम अपनी मां और बाप का पालन करो। माँ बाप का पालन करने से तुम्हारा आगे का लोक सुधरेगा । हे तात ! अपने बूढ़े मां बाप का पालन करना ही लौकिक पथ है, लोकाचार है। कहा गया है - पुराणों में लक्ष्मी और इन्द्र के संवाद में लक्ष्मी इन्द्र से कहती है, जहां गुरुजनों की, बड़ों की पूजा होती है, सत्कार होता है, तथा संस्कार पूर्वक, पवित्रता पूर्वक अन्न पकाया जाता है, रसोई बनती है तथा जहां वाक् कलह-बोलचाल में झगड़ा नहीं होता, हे इन्द्र ! मैं वहीं निवास करती हूँ ।
उत्तरा
महुरुल्लावा, पुत्रा हे तात ! खुड्डया । भारिया ते णवा तात ! मा सा अन्नं जणं गमे ॥५॥
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पुत्र
! क्षुद्रकाः ।
उतराः मधुरालापाः भाते नवा तात ! मा साऽम्यं जनं गच्छेत् ॥
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