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उपसर्गाध्ययनं
अधम हैं, जुगुप्सित-घृणास्पद हैं, और लुंचित मस्तक हैं। खुजली आदि की बीमारी से कहीं-कहीं इनके घाव हैं, खुजलाने से बनी रेखाओं के कारण इनके अंग विकृत हो गए हैं, शरीर के प्रतिकर्म-स्नान, प्रक्षालन आदि न करने से रोगों की उत्पत्ति के कारण सनत्कुमार की तरह इनके अंग नष्ट हो गए हैं, अपनी देह पर सूखे हुए पसीने के कारण ये बड़े गंदे घिनौने हैं। दूषित हैं, ये प्राणियों के लिए असमाधि अशांति पैदा करते हैं । ॐ ॐ ॐ
एवं विप्पडिवन्नेगे, तमाओ ते तमंजंति,
छाया
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अप्पणा उ अजाणया । मंदा मोहेण पाउड़ा ॥११॥
आत्मनात्वज्ञाः ।
एवं विप्रतिपन्ना एक तमसस्ते तमो यांति मंदा: मोहेन प्रावृताः ॥
अनुवाद इस प्रकार विप्रतिपन्न - संमार्ग, धर्ममार्ग या धार्मिक पुरुषों के साथ द्रोह करने वाले, स्वयं ज्ञान रहित मोहाच्छन्न अज्ञानी व्यक्ति एक अज्ञान से निकलकर दूसरे अज्ञान में प्रविष्ट होते जाते हैं ।
टीका – 'एवम्' अनन्तरोक्तनीत्या 'एके' अपुण्यकर्माणो 'विप्रतिपन्नाः' साधु सन्मार्गद्वेषिणः ‘आत्मना’ स्वयमज्ञाः तुशब्दादन्येषां च विवेकिनां वचन मकुर्वाणाः सन्तस्ते 'तमसः' अज्ञानरूपादुत्कृष्टं' तमो 'यान्ति' गच्छन्ति यदि वा - अधस्तादप्यधस्तनीं गतिं गच्छन्ति यतो 'मन्दा' ज्ञानावरणीयेनावष्टब्धाः ' तथा 'मोटेन' मिथ्यादर्शन रूपेण 'प्रावृता' आच्छादिताः सन्तः खिङ्गप्रायाः साधुविद्वेषितया कुमार्गगा भवन्ति, तथा चोक्तम्
" एकं हि चक्षुरमलं सहजं विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् ।
एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्याप् मार्गचलने खलु कोऽपराध: ? || १ || ११ ||श परीषह मधिकृत्याह
टीकार्थ कई ऐसे अपुण्य कर्मा-पापी लोग हैं, जो पहले कहे अनुसार साधुओं से तथा सन्मार्ग से द्रोह करते हैं, वे स्वयं ज्ञान रहित हैं । इस गाथा में 'तु' शब्द आया है, जिसका आशय यह है कि वे अन्य ज्ञानियों का कहना भी नहीं मानते, वे अविवेकी जीव एक अज्ञानात्मक अंधकार से निकलकर उससे भी भारी अज्ञानमय अंधकार को पाते हैं । अथवा वे निम्न से निम्न गति में जन्म लेते हैं, क्योंकि वे ज्ञानावरणीय कर्म आवृत्त हैं तथा मिथ्या दर्शनात्मक मोह से आछन्न हैं । वे अज्ञानान्ध पुरुष साधु से द्रोह करने कारण कुमार्ग सेवी हैं । कहा गया है सहज, स्वाभाविक, विवेक ज्ञान एक अमल् निर्मल नेत्र है । विवेक युक्तजनों के साथ रहना उनका संग करना नेत्र है, जिसके ये दोनों नेत्र नहीं होते, इस भूमण्डल पर वस्तुतः वही अन्धा
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है । वह यदि अपमार्ग-बुरे रास्ते पर चलता है तो उसकी क्या गलती है
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पुट्ठो य
दंसमसएहिं,
न ये दिट्ठे परे लोए, जइ परं
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तणफासमचाइया ।
मरणं सिया ॥१२॥
छाया स्पृष्टश्च दंशमशकै - स्तृणस्पर्शमशक्नुवन्तः
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न मया दृष्टः परो लोकः, यदि परं मरणं स्यात् ॥
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