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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - डांसों और मच्छरों द्वारा स्पृष्ट-आक्रांत होता हुआ तथा तृण शैय्या-घास फूस के बिछौने के रूखे-कठोर स्पर्श को नहीं सह सकता हुआ एक साधु सोचने लगता है कि मैंने परलोक को साक्षात् देखा नहीं है किन्तु इस कष्ट से मरण या मृत्यु तुल्य पीडा को तो मैं प्रत्यक्ष ही देख रहा हूँ।
टीका - क्वचित्सिन्धुत्ताम्रलिप्तकोङ्कणादिके देशे अधिका दंश मशका भवन्ति तत्र च कदाचित्साधुः पर्यटस्तैः "स्पृष्टश्च" भक्षितः तथा निष्किञ्चनत्वात् तृणेषु शयानस्तत्स्पर्श सोढुमशक्नुवन् आर्त्तः सन् एवं कदाचिच्चिन्त येत्, तद्यथा-परलोकार्थ मेतदुष्करमनुष्ठानं क्रियमाणं घटते, न चासौ मया परलोकः प्रत्यक्षेणोपलब्धः, अप्रत्यक्षत्वात्, नाप्पनुमानादिनोपलभ्यत इति, अतो यदि परं ममानेन क्लेशाभितापेन मरणं स्यात्, नान्यत्फलं किञ्चनेति ॥१२॥ अपिच -
टीकार्थ - सिन्धु, ताम्रलिप्त, तथा कोंकण आदि प्रदेशों में डांस और मच्छर बहुतायत से होते हैं। वहां विहरणशील साधु कदाचित डांसों और मच्छरों द्वारा स्पृष्ट हों, काटा जाए तथा निष्परिग्रही होने के कारण घास फूस के बिछौने पर सोया हुआ तिनकों के कठोर स्पर्श को न सह सके तो वह आर्त-दुःखित धैर्य रहित होकर ऐसा भी सोच सकता है कि यह जो मैं कठोर कर्म कर रहा हूँ, यह तो तभी उचित हो सकता है, जब परलोक का अस्तित्व हो । परलोक को मैंने नहीं देखा है, वह प्रत्यक्ष नहीं है । अनुमान आदि अन्य प्रमाणों द्वारा भी वह उपलब्ध, प्राप्त या सिद्ध नहीं होता । ऐसी स्थिति में यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो वही उसका फल होगा उसके अतिरिक्त अन्य कोई फल नहीं होगा ।
संतता केस लोएणं, ' बंभचेरपराइया । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा विट्ठा व केयणे ॥१३॥ छाया - संतप्ताः केशलुञ्चनेन, ब्रह्मचर्यपराजिताः ।
तत्र मंदाः विषीदन्ति मत्स्याः विद्धा इव के तने ॥ अनुवाद - केशों के लुंचन से संतप्त-दुःखित, पीडित तथा ब्रह्मचर्य से पराजित-ब्रह्मचर्य पालन में अपने को असमर्थ मानते हुए मंद-अज्ञानी पुरुष जाल में फंसी मछलियों की ज्यों विषाद का अनुभव करते हैं ।
टीका - समन्तात् तप्ताः सन्तप्ता: केशानां 'लोच' उत्पाटनं तेन, तथाहि सरूधिर केशोत्पाटने हि महती पीडोपपद्यते, तया चाल्पसत्त्वाः विस्त्रोतसिकोभजन्ते तथा 'ब्रह्मचर्य' वस्तिनिरोधस्तेन च 'पराजिताः' पराभग्नाः सन्तः 'तत्र' तस्मिन् केशोत्पाटनेऽति दुर्जय कामोद्रेके वा सति 'मंदा' जडा-लघु प्रकृतयो विषीदन्ति संयमानुष्ठानं प्रति शीतली भवन्ति, सर्वथा संयमाद् वा भ्रश्यन्ति, यथा मत्स्याः 'केतने' मत्स्य बन्धने प्रविष्टा निर्गतिकाः सन्तो जीविताद् भ्रश्यन्ति, एवं तेऽपि वराकाः सर्वंकषकामपराजिताः संयमजीवितात् भ्रश्यन्ति ॥१३॥
___टीकार्थ - केशों का उत्पाटन-उपाड़ना या उखाड़ना लोच कहा जाता है । केशों को उखाड़ते समय खून भी आ जाता है, इसलिए वैसा करते हुए बहुत पीड़ा होती है । अतएव कई आत्मबलरहित. पुरुष केशों के लुंचन से पीडित होकर दीन बन जाते हैं । काम के उद्रेग को रोकना ब्रह्मचर्य कहा जाता है, उससे पराजितउसके परिपालन में असमर्थ ओछी प्रकृति वाले अज्ञानी पुरुष जब केशों के लुंचन का समय आता है तथा
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