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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
अभिविंसु पुरावि भिक्खवो आएसावि भवंति सुव्वता । एयाइं गुणाई आहु ते कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥२०॥
अभूवन् पुराऽपि भिक्षवः ! आगामिनश्च भविष्यंति सुव्रताः । एतान् गुणान् आहु काश्यपस्यानुधर्मचारिणः ॥
अनुवाद - जो तीर्थंकर पूर्वकाल में हो चुके हैं, जो आगे होंगे, उन सभी सुव्रत-उत्तम व्रतयुक्त महापुरुषों ने तथा भगवान् ऋषभ एवं भगवान् महावीर के अनुयायियों ने इन्हीं गुणों-सिद्धान्तों द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है सिद्ध होता है, प्राप्त होता है, ऐसा बतलाया है ।
छाया
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टीका - 'एतदाह' - हेभिक्षवः साधवः ! सर्वज्ञः स्वशिष्यानेवयामन्त्रयति येऽभूवन् अतिक्रान्ताः जिना: सर्वज्ञा: आएसाविति, आगमिष्याश्च ये भविष्यन्ति तान् विशिनष्टि सुव्रताः शोभनव्रताः अनेनेदमुक्तं भवति तेषामपि जिनत्वं सुव्रतत्वादेवायातमिति ते सर्वेऽप्येतान् अनन्तरोदितान् गुणान् आहुः अभिहितवन्त: नाऽत्र सर्वज्ञानां कश्चिन्मतभेद इत्युक्तं भवति । ते च काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनो वा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिण इति । अनेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक एव मोक्षमार्ग इत्यावेदितं भवतीति ॥२०॥
टीकार्थ सर्वज्ञ प्रभु अपने अन्तेवासियों को सम्बोधित कर कहते हैं
भिक्षुओं ! हे साधुओं ! अतीत में जो सर्वज्ञ हो चुके हैं तथा आगे होंगे, वे सभी सुव्रत - शोभव्रतउच्च कोटि के व्रतों से युक्त रहे हैं । कहने का आशय है कि उनको जो सर्वज्ञत्व - केवल ज्ञान प्राप्त हुआ वह सुव्रतों - उत्तम व्रतों के पालन से ही हुआ । उन सर्वज्ञों ने उन गुणों को जिनका पहले वर्णन हुआ है, मोक्ष का साधन बताया है । इस सम्बन्ध में सर्वज्ञों में परस्पर कोई मतभेद नहीं है। वे सभी भगवान ऋषभदेव तथा काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर द्वारा अनुचीर्ण-आचरित धर्म का ही अनुसरण करने वाले थे। इससे यह प्रकट किया गया है कि सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है ।
तिविहेणवि पाण माहणे, आयहिते अणियाणसंवुड़े । एवं सिद्धा अनंतसो, संपइ जे अ अणागयावरे ॥२१॥
छाया
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त्रिविधेनाऽपि प्राणान् माहन्यादात्महितोऽनिदानसंवृतः ।
एवं सिद्धा अनन्तशः संप्रति येचानागता अपरे ॥
अनुवाद - मन, वचन और शरीर से प्राणियों का हनन - हिंसा नहीं करनी चाहिये। आत्महित में संप्रवृत रहकर स्वर्ग आदि की अभिलाषा से हटकर संयम का परिपालन करना चाहिये, ऐसा करते हुए अनन्त जीवों
सिद्धत्त्व प्राप्त किया है वे मुक्त हुए हैं। वर्तमान में भी होते हैं और भविष्य में भी होंगे ।
टीका अभिहितांश्च गुणानुद्देशत आह त्रिविधेन मनसा, वाचा, कायेन यदि वा कृतकारितानुमति र्वा प्राणिनो दशविधप्राणभाजोमाहन्यादिति प्रथममिदं महाव्रतम् अस्य चोपालक्षणार्थत्वाद् एवं शेषाण्यपि द्रष्ट द्रष्टव्यानि तथा आत्मने हित आत्महितः तथा नाऽस्य स्वर्गावाप्त्यादि लक्षणं निदान मस्तीत्यनिदानः तथेन्द्रिय नोइन्द्रियमनोवाक्कायैर्वा संवृत स्त्रिगुप्तिगुप्त इत्यर्थः एवम्भूतश्चाऽवश्यं सिद्धिमेवाप्नोतीत्येतद्दर्शयति- एवम्
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