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उपसर्गाध्ययनं
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टीका 'पयाया' इत्यादि, यथा वाग्भिर्विस्फूर्जन्तः प्रकर्षेण विकल पादपातं 'रण शिरशि' संग्राममूर्धन्य ग्रानी के याता- गता: के ते ? 'शूरा:' शूरं मन्या:- सुभटाः ततः सङ्ग्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकसुभटयुक्त हेति सङ्घाते सति तत्र च सर्वस्या कुली भूतत्वात् 'माता पुत्रं न जानाति' कटीतो भ्रश्यन्तं स्तनन्धयमपि न सम्यक् प्रतिजागन्तीत्येवं मातापुत्रीये सङ्ग्रामे परानीकसुभटेन जेत्रा चक्र कुन्तनाराचशक्त्यादिभिः परि:-समन्तात् विविधम्- अनेक प्रकारं क्षतो - हतश्छिन्नो वा यथाकश्चिदल्पसत्वो भङ्गभुपयाति दीनो भवतीतिया - वदिति ॥२॥ दान्तिकमाह
टीकार्थ अब लोक प्रसिद्ध एक वर्तमान कालिक दृष्टान्त दिया जाता है कई अपने को वीर समझने वाले पुरुष अपनी वाणी द्वारा अपनी प्रशंसा करते हुए, गरजते हुए एवं विकट चाल चलते हुए युद्ध के शीर्षअग्रभाग में पहुँच जाते हैं, परन्तु जब युद्ध शुरु हो जाता है तो सामने आते शत्रु सेना के बहादुर सैनिक अपने शस्त्रों द्वारा प्रहार करने लगते हैं, तब सभी आकुल हो उठते हैं, घबरा उठते हैं, यहां तक कि माता अपनी गोद से गिरते हुए दूध चूश्वने वाले शिशु तक का ध्यान नहीं रख पाती, इस तरह संग्राम में शत्रु सेना के योद्धाओं द्वारा चक्र, कुन्त-भाले, नाराच - तीक्ष्ण बाण तथा शक्ति आदि तरह-तरह के शस्त्रों द्वारा क्षत विक्षत-घायल हुआ वह अल्पसत्त्व कायर पुरुष दीन हीन हो जाता है ।
एवं सेहेवि सूरं मण्णति
छाया
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अप्पट्टे,
भिक्खायरियाअकोविए । अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए ॥ ३ ॥
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एवं शिष्योऽप्यस्पृष्टो भिक्षाचर्याकोविदः ।
शूरं मन्यत आत्मानं यावद्र्क्षं न सेवते ॥
अनुवाद जिस प्रकार अल्पसत्व कायर पुरुष जब तक शत्रु सेना के योद्धाओं द्वारा क्षत विक्षत नहीं किया जाता तभी तक अपने को वीर मानता है । इसी प्रकार भिक्षाचर्य में अकुशल, अयोग्य तथा परीषहों द्वारा अस्पृष्ट अपीड़ित नवदीक्षित साधु भी तभी तक अपने को वीर मानता है, जब तक संयम का सेवन नहीं करता।
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टीका – 'एव' मिति प्रकान्तपरामर्शार्थ: यथाऽसौ शूरंमन्य उत्कृष्टिसिंहनाद पूर्वकं सङ्ग्रामशिस्युपस्थितः पश्चाज्जेतारं वासुदेव मन्यं वा युध्यमानंदृष्ट्वा दैन्य मुपयाति, एव 'शैक्षकः' अभिनव प्रव्रजितः परीषहैः । अच्छुप्तः : किं प्रव्रज्यायां दुष्करमित्येवं गर्जन् 'भिक्षाचर्यायां' भिक्षाटने ' अकोविदः ' अनिपुणः, उपलक्षणार्थत्वादन्यत्रापि साध्वाचारेऽभिनवप्रव्रजितत्वाद प्रवीणः, स एवम्भूत आत्मानं तावच्छिशुपालवत् शूरं मन्यते यावज्जेतारमिव 'रूक्षं' संयमं कर्मसंश्लेषकारणाभावात् 'न सेवते' न भजत इति, तत्प्राप्तौ तु बहवो गुरु कर्माणोऽल्पसत्त्वा भङ्गमुपयान्ति ॥३॥ टीकार्थ. अब दृष्टान्त का सार कहा जाता है - इस गाथा में आया हुआ ' एवं ' शब्द प्रस्तुत अर्थ को सूचित करता है जिस प्रकार अपने को बहादुर समझने वाला वह पुरुष जोर से सिंह नाद-गर्जन करता हुआ युद्ध के अग्रभाग में पहुँच जाता है परन्तु वहाँ युद्ध करते हुए किसी वासुदेव या अन्य किसी योद्धा को देखकर दैन्य को प्राप्त हो जाता है, इसी प्रकार जिसके परीषहों का संस्पर्श नहीं हुआ है-जिसे परीषहों का सामना करने का अवसर नहीं आया है, जो भिक्षाचर्या में अनिपुण है- अकुशल है, यहां उपलक्षण से यह समझा
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