________________
उपसर्गाध्ययनं
टीका – 'ग्रीष्मे' ज्येष्ठाषाढाख्ये अभितापस्तेन 'स्पष्ट: ' छुप्तो व्याप्तः सन् 'विमनाः' विमनस्कः, सुष्ठु पातुमिच्छा पिपासा तां प्राप्तो नितरां तृड़भिभूतो बाहुल्येन दैन्यमुपयातीति दर्शयति 'तत्र' तस्मिन्नुष्णपरीषहोदये 'मन्दा' जड़ा अशक्ता 'विषीदन्ति ' यथा पराभङ्गमुपयान्ति, दृष्टान्तमाह-मत्स्या अल्पोदके विषीदन्ति, गमनाभावान्मरणमुपयान्ति, एवं सत्त्वाभावात्संयमात् भ्रश्यन्त इति, इदमुक्तं भवति यथा मत्स्या अल्पत्वादुदकस्य ग्रीष्माभितापेन तप्ता अवसीदन्ति, एवमल्पसत्वाश्चारित्रप्रतिपत्तावपि जल्लमलक्लेदक्लिन्नगात्रा बहिरुष्णाभितप्ताः शीतलान् जलाश्रयान् जलधाराग्रहचन्दनादीनुष्णप्रतिकारहेतूननुस्मरन्ते-व्याकुलितचेतसः संसमानुष्ठानं प्रति विषीदन्ति ॥
टीकार्थ - ग्रीष्म- ज्येष्ठ व आषाढ मास में जो गर्मी पड़ती है, उसे ग्रीष्माभिताप कहा जाता है । उस ग्रीष्माभिताप से स्पृष्ट-व्याप्त पुरुष विमनस्क - खिन्न या उदास हो जाता है, तथा प्यास से अत्यन्त पीड़ित होकर दीन बन जाता है । सूत्रकार इसी का दिग्दर्शन कराते हुए बतलाते हैं कि इस तरह गर्मी के परीषह के उदित होने पर आत्मबल विवर्जित मूर्ख प्राणी, बड़े विषाद का अनुभव करते हैं । दृष्टान्त देकर इसे समझाते हैं किजैसे मछलियां स्वल्प जल में ग्रीष्मऋतु की गर्मी से तप्त होकर दुःख को प्राप्त होती हैं, कहीं बाहर न जाने के कारण वहीं मर जाती हैं, उसी प्रकार अल्पसत्व - अत्यधिक न्यून आत्मबल युक्त असक्त पुरुष चारित्र स्वीकार करके भी जब वे मल और पसीने से सिक्त हो जाते हैं, बाहर की गर्मी से तप्त हो जाते हैं, तब ठण्डे पानी के सरोवर या जल के फव्वारे, चन्दन आदि गर्मी को मिटाने वाले पदार्थों को याद करते हैं । उनका चित्त व्याकुल हो उठता है वे संयम का परिपालन करने में विषाद का अनुभव करते हैं ।
सदा दत्तेसणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया । पुढोजणा ॥६॥
चेव,
कम्मत्ता
दुब्भगा
इच्चाहंसु
छाया सदा दत्तैषणा दुखं याञ्चा दुष्प्रणोद्या । कर्मार्ताः दुर्भगाश्चैवेत्याहुः पृथग्जनाः ॥
अनुवाद - साधु को दूसरे द्वारा दिये जाते पदार्थ की एषणा - गवैषणा करने का सदा दुःख बना रहता है, क्योंकि अनेषणीय पदार्थ लेना उसके लिए वर्जित है । याञ्चा - याचना भी परीषह है, जिसे सहन करना कठिन है, ऐसा होते हुए भी पृथक् जन-साधारण लोग जो संयम का महत्व नहीं जानते, साधु को देखकर कहते हैं कि ये कैसे भाग्यहीन है, अपने पूर्वकृत कर्मों का कष्टपूर्ण फल भोग रहे हैं ।
टीका - साम्प्रतं याञ्चापरीषहमधिकृत्याह-'सदादत्त' इत्यादि, यतीनां 'सदा' सर्वदा दन्तशोधनाद्यपि परेण दत्तम् एषणीयम् - उत्पादाद्येषणादोषरहितमुपभोक्तव्यमित्यतः क्षुधादिवेदनार्त्तानां यावज्जीवं परदत्तैषणा दुःखं भवति, अपि चेयं 'याञ्चा' याञ्चापरीषहोऽल्पसत्वैर्दुःखेन 'प्रणोद्यते' त्यज्यते, तथा चोक्तम् -
‘खिज्जई मुहलावण्णं वाया घोलेइ कंठमज्झमि । कह कहकहेइ हिययं देहित्ति परं भणंतस्स ॥१॥ छाया-क्षीयते मुखलावण्यं वाचा गिलाते (धूर्णति) कण्ठमध्ये, कहकहकहित हृदयं देहीति परंभवतः॥१॥ गतिभ्रंशो मुखे दैन्यं गात्रस्वेदो विवर्णता । मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ॥१॥"
इत्यादि, एवं दुस्त्यजं याञ्चापरीषहं परित्यज्य गताभिमाना महासत्त्वा ज्ञानाद्यभिवृद्धये महापुरुषसेवितं पन्थान मनुव्रजन्तीति । श्लोकपश्चार्द्वनाऽऽक्रोश परीषहं दर्शयति- "पृथग्जनाः ' प्राकृत पुरुषा अनार्यकल्पा 'इत्येव
201