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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् माहुः' इत्येव मुक्तवंतः, तद्यथा-ये एते यतयः जल्लाविलदेहा लुञ्चित शिरसः क्षुधादिवेदना ग्रस्तास्ते एवे पूर्वाचरितैः कर्मभिरार्ताः पूर्वस्वकृतकर्मणः फल मनुभवन्ति, यदिवा-कर्मभिः-कृष्यादिभिरार्ताः तत्कर्तुमसमर्था उदिग्ना सन्तोयतयः संवृत्ता इति, तथैते दुर्भगा: सर्वेणैव पुत्रदारादिना परित्यक्ता निर्गतिकाः सन्तः प्रव्रज्यामभ्युपगता इति ॥६॥
टीकार्थ - साधु के लिए यह अपेक्षित है कि वह किसी अन्य द्वारा प्रदत्त दंतशोधन-दतौन आदि वस्तु का भी अन्वेषण करे, वह निर्दोष हो इसकी खोज करे । उसके लिए उत्पाद एषणा आदि दोषों से रहित आहार ही स्वीकार्य या सेवन करने योग्य है । इसलिए भूख आदि की वेदना से युक्त साधु को अन्य द्वारा प्रदत्त वस्तु की गवैषणा करने की कठिनाई यावज्जीवन झेलनी पड़ती है । भिक्षा की याचना करना भी एक प्रकार से कष्ट ही है । जिनमें आत्मबल की कमी होती है, वैसे जीव उसे सहन नहीं कर पाते । इसलिए ज्ञानी जनों ने कहा है कि जो पुरुष किसी से कुछ याचना करता हुआ यह कहे कि मुझे अमुक वस्तु दो, उसके मुख का लावण्य-आभा क्षीण हो जाती है, उसकी वाणी गले के बीच में ही अटक जाती है । उसका हृदय व्याकुल हो जाता है । उसकी गति चाल विकृत हो जाती है, मुख पर दीनता छा जाती है, देह से पसीना छूटने लग जाता है । उसका वर्ण फीका पड़ जाता है । इस प्रकार मृत्यु के समय में मनुष्य में जो-जो निशान दिखाई देते हैं, वे सब याचना करने वाले पुरुष में परिलक्षित होते हैं । याचना रूप परीषह जिसे सह पाना बहुत कठिन है उसे सहने वाले निरभिमान, आत्मबल के धनी जीव ही ज्ञानादि की वृद्धि हेतु उस पथ पर चलते हैं, जिस पर महापुरुष चलते रहे हैं।
सूत्रकार प्रस्तुत गाथा के उत्तरार्द्ध में आक्रोश परीषह के सम्बन्ध में कहते हैं-साधारण लोक जिनकी वृत्ति अनार्यों जैसी होती है साधु को देखकर कहने लगते है कि इन साधुओं के शरीर पर मैल परिव्याप्त है, मस्तक के केश लुंचित है, भूख आदि की पीड़ा से युक्त है इस प्रकार ये अपने द्वारा पहले-पूर्व जन्म में किए गए पापों का फल भोग रहे हैं । ये खेती आदि जीविकोपार्जन के कार्यों में अपने को असमर्थ पाकर साधु हो गए है, ये लोग दुर्भग-अभागे हैं, स्त्री पुरुष आदि पारिवारिक वृन्द तथा अन्य सब पदार्थो से रहित एवं आश्रय विहीन होने के कारण इन्होंने प्रव्रज्या स्वीकार की है।
एते सद्दे अचायंता, गामेसु णगरेसु वा । तत्थ मंदा . विसीयंति, संगामंमिव भीरूया ॥७॥ छाया - एताँश्च्छब्दानशक्नुवन्तो ग्रामेषु नगरेषु वा ।
तत्र मंदा विषीदन्ति संग्राम इव भीरूकाः ॥ अनुवाद - गांवों, शहरों या उनके बीच स्थानों में ऐसे निन्दापूर्ण शब्दों को सुनकर मन्द-मन्दबुद्धि, विवेक रहित साधु इस प्रकार विवाद-शोक करने लगते है, दुःखित हो जाते हैं, जैसे युद्ध में कायर पुरुष होते
टीका - ‘एतान्' पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान् तथा चौर चारिकादिरूपान शब्दान् सोढुम शकनुवन्तो ग्रामनगरादौ तदन्तराले वा व्यवस्थिताः 'तत्र' तस्मिन् आक्रोशे सति 'मन्दा' अज्ञा लघु प्रकृतयो 'विषीदन्ति' विमनस्का
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