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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् स्थल आर्द्र है, वह हाथी अकाल मेघ - असमय में आये बिना मौसम के बादल की ज्यों तभी तक गर्जता है, जब तक वह गुफा में से सिंह से पूछ फटकारने के शब्द को नहीं सुनता । दृष्टान्त के बिना सामान्य जन अभिप्राय को प्राय: समझ नहीं पाते, इसलिए एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया जाता है। शिशुपाल जो माद्री का बेटा था, कृष्ण को देखने से पूर्व अपनी बढ़ाई करता हुआ खूब गरज रहा था किन्तु जब उसने शस्त्रों से प्रहार करते हुए दृढ़धर्मा- युद्ध में दृढ़ स्वभावयुक्त, संग्राम में कभी भग्न नहीं होने वाले, अडिग रहने वाले महारथी नारायण - श्री कृष्ण को देखकर क्षोभ को प्राप्त हुआ था। जैसा कहा गया है - वह पहले अपनी अत्यधिक प्रशंसा करने में लगा था, वह सब भूल गया। इसी प्रकार आगे बताये जाने वाले दृष्टान्त से इसका आशय जोड़ लेना चाहिए । आगे के कथा भाग से इसका भाव जुड़ा हुआ है । वह कथा भाग इस प्रकार है।
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दमघोष राजा के वसुदेव की बहिन के गर्भ से शिशुपाल नामक पुत्र जन्मा । वह चार भुजा युक्त था। अद्भुत पराक्रमशील और कलहप्रिय था । उसकी माता ने जब इस चारभुजा युक्त बलशाली पुत्र को देखा तो एक ओर हर्षित हुई तथा दूसरी ओर भय से कांप उठी । उसने फलादेश जानने हेतु ज्योतिषी को बुलाया । ज्योतिषी ने चिंतन विमर्श कर हृष्ट हृदया - प्रसन्न चेतसका माद्री 'कहा- तुम्हारा यह पुत्र अत्यधिक शक्तिशाली और युद्ध में अपराजेय होगा, किंतु जिसे देखकर तुम्हारे पुत्र की, जैसे कि साधारणतः सबके होती है, दो ही भुजाएं रह जावे तो समझ लेना उसी पुरुष से उसको भय होगा। मैं जो कहता हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं है । यह सुनकर माद्री बहुत डर गई । उसने अपने पुत्र को कृष्ण को दिखलाया, ज्यों ही कृष्ण ने उसकी ओर दृष्टिपात किया उसके दो ही भुजाएं रह गई, जैसे हर आदमी के होती हैं । तब कृष्ण की भुआ म ने अपने पुत्र को के चरणों में गिराकर उससे अभ्यर्थना की कि यदि यह कभी अपराध भी करे तो तुम उसे क्षमा करना । कृष्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं इसके सौ अपराध क्षमा करूंगा । इसके बाद शिशुपाल युवा हुआ। वह यौवन के गर्व से उन्मत्त होकर श्रीकृष्ण को अपशब्द कहने लगा, गाली देने लगा । यद्यपि श्रीकृष्ण उसको दण्ड देने में सक्षम थे, किन्तु अपने द्वारा की गई प्रतिज्ञा के अनुसार वे उसके अपराधों को माफ करते गए। यों जब शिशुपाल सौ अपराध कर चुका तब कृष्ण ने उसे फिर ऐसा न करने हेतु बहुत समझाया, मना किया किन्तु वह रोकने पर भी नहीं माना - गालियाँ देता रहा । तब श्रीकृष्ण ने चक्र द्वारा उसका शिर उच्छिन्न कर डाला, काट दिया ॥ १ ॥
कृष्ण
पयाता सूरा रणणीसे, संगामम्मि पुत्तं न याणाई, जेएण
माया
छाया
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प्रयाताः शूरा रणशीर्षे संग्राम उपस्थिते । माता पुत्रं न जानाति जेत्रा परिविक्षतः ॥
Baf परिविच्छ ॥२॥
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अनुवाद - युद्ध के छिड़ जाने पर शौर्य का अभिमान करने वाला एक कायर पुरुष भी होता है, किन्तु दुस्सह संग्राम में वह भय भ्रान्त हो जाता है, घबरा उठता है । जहाँ माता अपने गोद में गिरते हुए भी नहीं जान पाती, वैसी हड़बडाहट की स्थिति में वह कायर पुरुष, भिन्न घायल होकर दीन बन जाता है ।
युद्ध
में अग्रसर पुत्र को अपनी विजेता द्वारा. छिन्न