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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् पहले वर्णित तीन उपदेशकों में जो बातें कही गई हैं वे आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव द्वारा अपने पुत्रों को कही थी । जिससे उत्तम-बढ़कर दूसरा नहीं होता उसे अनुत्तर कहा जाता है । जो ज्ञान सबसे उत्तम होता से अनत्तर ज्ञान कहा गया है। भगवान का वैसा अनुतर ज्ञान था, अतएव भगवान अनुत्तर ज्ञानी थे. उसी प्रकार वे अणुत्तर दर्शनी थे । सामान्य और विशेष को प्रकाश करने वाला जो ज्ञान है वे तत्स्वभाव रूप थे । अब बौद्धमत का निरसन करने की दृष्टि से बतलाते हैं-ज्ञान का आधार जीव है-अर्थात् जीव ज्ञान का धारक है । भगवान अनुत्तर ज्ञान और दर्शन के धारक थे । इसका तात्पर्य यह है कि भगवान अपने से कथंचित भिन्न ज्ञान और दर्शन के आधार थे । इन्द्र आदि देवों द्वारा पूजनीय भगवान ऋषभ के प्रतिनिधि स्वरूप ज्ञात पुत्र भगवान महावीर ने विशाला या वैशाली नगरी में हमें उपदेश दिया । वैशालिय का एक रूप वैशालिक भी होता है जिसका तात्पर्य विशाल कुल में उत्पन्न होना है। कहा गया है-भगवान महावीर की माता त्रिशला विशाला-परम सौभाग्यशीला थी। उनका कुल विशाल-अत्यंत उच्च था । उनका वचन-प्रवचन विशाल-अत्यन्त उत्तम था । इसलिये वैशालिक (जिन-जिनेश्वर) तीर्थंकर कहलाये । यहां इति शब्द परि समाप्ति के अर्थ में आया है । ब्रवीमि-बोलता हूं-यह शब्द पूर्वोक्त निरूपण के साथ जोड़ना है ।
. ॥ तृतीय उद्देशक समाप्तम् ॥ ॥ उसकी समाप्ति के साथ उसका दूसरा वैतालिय अध्ययन परिपूर्ण हुआ ॥
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1960