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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् भी एकाकी ही दुःख भोगता है, उसके रिश्तेदार उसकी बीमारी को न तो घटा सकते हैं और न मिटा सकते हैं अथवा उपक्रम के कारणों से जब किसी प्राणी का आयुष्य नष्ट हो जाता है, पूर्ण हो जाता है या उसका आयुष्य अपनी अवधि पूर्ण होने पर समाप्त हो जाता है, यों जब मृत्युकाल उपस्थित हो जाता है-वह मरण प्राप्त कर लेता है, तब एकाकी ही परलोक में जाता है । वहां से पुनः इस लोक में भी अकेला ही आता है । विद्वान-विवेकशील पुरुष संसार के स्वभाव को यथावतरूप में जानता है-वास्तव में जैसा वह है, उसे वैसा ही समझता है । वह धन आदि को अपना जरा भी रक्षक नहीं मानता, फिर सम्पूर्णतः रक्षक मानने की तो बात ही कहां ? कहा है-इस संसार में जीव का जन्म और मरण अकेले का ही होता है । इस भवचक्र में वह अकेला ही शुभ अशुभ गतियों में जाता है । अतः मृत्यु पर्यन्त जीव को एकाकी ही अपने हित साधन में आत्मकल्याण में जुटे रहना चाहिये । जीव अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोग करता है। अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है, अकेला ही परलोक जाता है।
सव्वे सयकम्मकप्पिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिंडंति भयाउला सढ़ा, जाइ जरा मरणेहि ऽभिदुता ॥१८॥ छाया - सर्वे स्वककर्मकल्पिता अव्यक्तेन दुःखेन प्राणिनः ।
हिंडंति भयाकुलाः शठाः जातिजरामरणैरभिद्रुताः ॥ अनुवाद - संसार में समग्र प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार भिन्न भिन्न अवस्थाओं में विद्यमान हैं । सभी अव्यक्त-अलक्षित दुःख से पीड़ित हैं जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु से अभिद्रूत है-आक्रान्त है। वे शठअज्ञानी दुर्जन जीव पुनः पुनः इस संसार में भटकते हैं ।
___टीका - अन्यच्च सर्वेऽपि संसारोदरविवरवर्तिनः प्राणिनः संसारे पर्यटन्तः स्वकृतेन ज्ञानावरणीयादिना कर्मणा कल्पिताः सूक्ष्मवादर पर्याप्तकापर्याप्तकैकेन्द्रियादिभेदेन व्यवस्थिताः तथा तेनैव कर्मणैकेन्द्रियाद्यवस्थायाम् अव्यक्तेन अपरिस्फुटेन शिरः शूलाद्यलक्षितस्वभालवेनोपलक्षणार्थत्वात् प्रव्यक्तेन च दुःखेन असातावेदनीयस्वभावेन समन्विताः प्राणिनाः पर्यटन्ति अरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन तास्वेव योनिषु भयाकुलाः शटकर्मकारित्वात् शठाः भ्रमन्ति जातिजरामरणैरभिद्रुताः गर्भाधानादिभिर्दुःखैः पीडिता इति ॥१८॥
टीकार्थ - दूसरी बात यह है कि संसार के उदर रूपी विवर-बिल या गुफा में निवास करने वाले प्राणी इस जगत में पर्यटन करते हुए-भटकते हुए स्वकृत ज्ञानावरणीयादि कर्मों के फलस्वरूप सूक्ष्म, स्थूल, पर्याप्त. अपर्याप्त, एकेन्द्रिय आदि भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं । इन अवस्थाओं में विद्यमान वे प्राणी शिरः शूल-मस्तक पीड़ा आदि अपरिस्फुट-अव्यक्त दुःखों से पीडित होते हैं । यहां अलक्षित दुःख उप लक्षण है । उसका अभिप्राय यह है कि वे असातवेदनीय के उदय के परिणामस्वरूप प्रव्यक्त स्पष्ट रूप से प्रतीयमान दःखों से भी पीडित होते हैं । वे रहट की तरह बार बार योनियों में चक्कर काटते रहते हैं । वे
दुष्टता युक्त कर्म करते हैं । इसलिये शठ कहे गये हैं । वे भय से व्याकुल रहते हैं । जन्म, वृद्धावस्था और मौत से अविद्रूत-आक्रान्त रहते हैं, वे बार बार गर्भ में आते हैं, संसार में दुःख पाते हैं ।
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