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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् उपधानं तपस्तत्र वीर्य्यं यस्य स तथा अनिगूहित बलवीर्य्य इत्यर्थः तथा मनोवाक्कायगुप्तः सुप्रणिहितयोग इत्यर्थः तथा युक्तो ज्ञानादिभिः सदा सर्वकालं यतेताऽऽत्यनि परस्मिंश्च । किंविशिष्टः सन् ? अत आह परम् उत्कृष्ट आयतो दीर्घः सर्वकालभवनान्मोक्षः तेनार्थिकः तदभिलाषी पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टो भवेदिति ॥१५॥
टीकार्थ - साधु हेय - त्यागने योग्य उपादेय स्वीकार करने योग्य पदार्थों को जानकर सर्वसंवर रूप धर्म मार्ग को ग्रहण करे, जो सर्वज्ञों द्वारा उपदिष्ट है। वह धर्म को ही अपने जीवन का प्रयोजन- ध्येय समझे अथवा वह धर्म को ही एकमात्र अर्थ-जीवन के लिये वास्तविक पदार्थ समझे क्योंकि धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी अनर्थ है-आत्मा के लिये अप्रयोजन भूत है । उपधान तप का नाम है । साधु उसमें अपना पराक्रम कम न करे - उसमें अधिकाधिक आत्म पुरुषार्थ का उपयोग करे । वह मन, वचन और शरीर से गुप्तियुक्त रहे । दूसरे शब्दों में सुप्रणिहित योग- अपने मानसिक, कायिक, वाचिक योगों को असत् से निवृत्त तथा सत् में प्रवृत्त बनाये रखे । वह ज्ञानादि से युक्त होता हुआ सदैव स्वपर कल्याण में यत्नशील रहे। प्रश्न उपस्थित करते हुए आगे कहते हैं कि वह कैसा होकर यह करे ? जो सबसे दीर्घ है उसे परमायत कहा जाता है तथा जो सब काल में अवस्थित रहता है वह परमायत है, वह मोक्ष हैं, साधु सदा मोक्षाभिलाषी रहता हुआ इन इन विशेषताओं से जुड़ा रहे जिनका पहले उल्लेख हुआ है ।
वित्तं पसवो य नाइओ तं बाले सरणं ति मन्नइ ।
एते मम तेसुवी अहं नो ताणं सरणं न विज्जई ॥ १६ ॥
छाया
अनुवाद - बाल-अज्ञानी पुरुष वित्त धन दौलत तथा ज्ञातिजन - पारिवारिक वृन्द को अपनी शरण मानता है । वह ऐसा समझता है कि ये सब मुझे दुःख से बचा लेंगे, मेरी रक्षा करेंगे । तथा मैं इनकी रक्षा करूंगा। किन्तु वास्तविकता यह है कि उसकी रक्षा नहीं कर सकते ।
वित्तं पशवंश्च ज्ञातयस्तद् बालः शरण मिति मन्यते । एते मम तेष्वप्यहं नो त्राणं शरणं न विद्यते ॥
टीका - पुनरप्युपदेशान्तरमाह - 'वित्तं' धनधान्यहिरण्यादि 'पशवः' करितुरगगोमहिष्यादयो ज्ञातयः स्वजनाः मातापितृपुत्रकलत्रादयः तदेत द्वित्तारिकं बालः अज्ञः शरणं मन्यते तदेव दर्शयति ममैते वित्तपशुज्ञातयः परिभोगे उपयोक्ष्यन्ते तेषु चार्जनपालन संरक्षणदिना शेषोपद्रवनिराकरण द्वारेणाहं भवामीत्येवं बालोमन्यते न पुनर्जानीते यदर्थं धनमिच्छन्ति तच्छरीरमशाश्चतमिति । अपि च " रिद्धी सहावतरला रोगजराभंगुरं हयसरीरं । दोहंपि गमणसीलाण किच्चिरं होज्ज संबंधो ?” तथा
जाता
" मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । प्रतिजन्मनि वर्त्तेन्ते कस्य माता पिताऽपि वा ?" एतदेवाह - नो नैव वित्तादिकं संसारे कथमपि त्राणं भवति नरकादौ पततो नाऽपि रागादिनोपद्रुतस्य क्वचिच्छरणं विद्यत इति ॥ १६ ॥
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टीकार्थ
धन-धान्य, हिरण्य एवं स्वर्ण- इन्हें वित्त कहा जाता है हस्ति, अश्व, गौ, महिषी आदि को पशु कहा । मां, बाप, बेटा और पत्नी आदि स्वजनवृन्द को ज्ञाति कहा जाता है । अज्ञानी प्राणी इन धनधान्यादि
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आगमकार इस संबंध में दूसरा उपदेश देने हेतु प्रतिपादित करते हैं -
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