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वैतालिय अध्ययनं पदार्थों को अपनी शरण मानता है । इसी बात का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं- ज्ञान रहित प्राणी ऐसा समझता है कि धन पशु तथा स्वजनवृन्द मेरे परिभोग हेतु सांसारिक सुखोपभोग के संदर्भ में उपयोगी होंगे। मैं उपार्जनधन कमा कर इनका पालन करता हुआ, समस्त उपद्रवों का निराकरण करूंगा, उन्हें मिटाऊंगा । वास्तव में जिस शरीर के निमित्त धन वैभव की कामना की जाती है, वह शरीर विनश्वर है - क्षणभंगुर है, वह मूर्ख इस बात को नहीं जानता । कहा है कि ऋद्धि, धन सम्पत्ति स्वभाव से ही चंचल - अस्थिर है तथा यह शरीर बीमारी और बुढ़ापे द्वारा नश्वर है - रोग और वृद्धावस्था इसे नष्ट कर देते हैं । इन दोनों गमनशील पदार्थों का परस्पर संबंध कब तक बना रह सकता है । माता एवं पिता विविध जन्मों में सहस्रों बार हुए हैं । पुत्र और पत्नी भी सैंकड़ों बार हुए हैं । यह तो प्रत्येक जन्म में होते ही रहते हैं । वास्तव में कौन किसकी माता है और कौन पिता है ? आगमकार इसी बात को फ़िर कहते हैं कि संसार में धन आदि कभी भी किसी की रक्षा नहीं कर सकते । नरक में गिरते हुए राग आदि में उपद्रूत-अभिभूत प्राणी के लिये कहीं भी शरण नहीं हैउसे कोई भी नहीं बचा सकता ।
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अब्भागमितंमि वा दुहे अहवा उक्कमिते भवंति एगस्स गती य आगती, विदुमंता सरणं ण मन्नई ॥१७॥
छाया
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अनुवाद जब किसी प्राणी पर किसी प्रकार का दुःख आता है तो वह अकेला ही उसे .. भोगता है अथवा उपक्रमवश जब उसका आयुष्य नष्ट हो जाता है, मरने लगता है, तो वह एकाकी
ही परलोक में जाता है, इसलिये विद्वान - ज्ञानीजन किसी को अपना शरण नहीं मानते ।
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अभ्यागते वा दुःखे ऽथवोत्क्रान्ते भवान्तिके । एकस्य गतिश्चागतिः विद्वान् शरणं न मन्यते ॥
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टीका - एतदेवाह पूर्वोपात्तासातवेदनीयोदयेनाभ्यागते दुःखे सत्येकाक्येव दुःख मनुभवति, न ज्ञातिवर्गेण वित्तेन वा किञ्चित् क्रियते । तथा च
'सयणस्सवि मज्झगओ रोगाभिहतो किलिस्सइ इहेगो । सयणोविय से रोगं न विरंचइ नेव नासेइ ?" अथवा उपक्रमकारणै रुपक्रान्ते स्वायुषि स्थितिक्षयेण वाभवान्तरे भवान्तिके वा मरणे समुपस्थिते सति एकस्यैवासुमतो गतिरागतिश्च भवति विद्वान विवेकी यथावस्थितसंसारस्वभावस्य वेत्ता ईषदपि तावत् शरणं न मन्यते कुतः सर्वात्मना त्राणमिति तथाहि
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'एकस्य जन्म मरणे गतयश्च शुभाशुभाः भवावर्ते । तस्मादाकालिकाहितमेकेनैवात्मनः कार्य्यम् ?" “एक्को करेइ कम्मं फलमवि तस्सिक्कओ समणुहवइ । एक्को जायइ मरइ य परलोयं एक्कओ जाइ?''॥१७॥ टीकार्थ आगमकार इसी तथ्य को निरूपित करते
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पूर्व जन्म में संचित असातवेदनीय कर्मों के उदय से जब प्राणी के ऊपर दुःख आता है, तब वह का उसे भोगता है । उस समय वित्त धन दौलत अथवा ज्ञातिवर्ग-पारिवारिक जन उसकी जरा भी सहायता नहीं कर सकते । अतएव कहा है- रोगाभिहत - बीमारी से पीड़ित जीव अपने कुटुम्बी जनों के बीच में रहता हुआ
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