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वैतालिय अध्ययन सर्वज्ञ निरूपित सिद्धान्तानुसार जो यति-साधु गृहस्थ से लेकर एकेंद्रिय प्राणियों तक- सबके प्रति समता समत्व भाव रखता है वह उत्तम व्रत युक्त पुरुष गृहस्थ होता हुआ भी इन्द्रादि देवों के लोक में जाता है । फिर उन साधुओं का तो कहना ही क्या जो पंचमहाव्रत पालक है । महासत्व- आत्म पराक्रम के महान धनी हैं ।
सोच्चाभगवाणुसासणं सच्चे तत्थ करेज्जुवक्कम ।
सव्वत्थ विणीयमच्छरे उच्छं भिक्खु विसुद्धमाहरे ॥१४॥ छाया - श्रुत्वा भगवदनुशासनं सत्ये तत्र कुर्य्यादुपक्रमम् ।
सर्वत्र विनीतमत्सरः उञ्छं भिक्षु विशुद्ध माहरेत् ॥ अनुवाद - भगवान-सर्वज्ञ प्रभु द्वारा प्ररूपित अनुशासन-धर्म सिद्धान्त श्रवण कर उसमें बताये गये सत्य संयम में उपक्रमशील-समुद्यत होना चाहिये । किसी के साथ मत्सर-ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये, इस प्रकार वर्तनशील साधु को शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये ।
टीका - अपि च ज्ञानैश्वर्यादिगुणसमन्वितस्य भगवतः सर्वज्ञस्य शासनम् आज्ञामागमं वा श्रुत्वा अधिगम्य तत्र तस्मिन्नागमे तदुक्ते वा संयमे सद्भ्यो हिते सत्ये लघुकर्मा तदुपक्रमं तत्प्राप्त्युपायं कुर्यात्, किंभूतः सर्वज्ञापनीतो मत्सरो येन स तथा सोऽरक्तद्विष्टः क्षेत्रव (वा) स्तूपधिशरीरनिष्पिपासः,तथा उच्छंत्ति भैक्ष्यं विशुद्धं द्विचत्वारिंशद्दोषरहितमाहरं गुह्णीयादभ्यवहरेदिति ॥१४॥
टीकार्थ - ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से समन्वित-सहित, सर्वज्ञप्रभु के द्वारा उपदिष्ट आगम या आज्ञा का श्रवण कर लघु कर्मी-हलुकर्मी पुरुष सत्पुरुषों के लिये हितप्रद उस आगम या आगमोक्त संयम पथ को अंगीकार करने का उपक्रम-उद्यत-या उपाय करे । यह प्रश्न उठाते हुए कि कैसा उपक्रम करे? कहा जाता है सभी पदार्थों में मत्सर-ईर्ष्या रहित, क्षेत्र, घर, उपधि एवं शरीर आदि में तृष्णा विवर्जित एवं समस्त पदार्थों में रागद्वेष शून्य होकर संयम में उद्यमशील बने, साधु बयालीस प्रकार के दोषों से रहित शुद्ध आहार ग्रहण करे सेवन करे ।
. सव्वं नच्चा अहिट्ठए धम्मठ्ठी उनहाणवीरिए ।।
गुत्ते जुत्ते सदा जए आयपरे परमायतट्ठिते ॥१५॥ छाया - सर्वं ज्ञात्वाऽधितिष्ठेत् धर्मार्थ्यपधानवीर्यः ।
गुप्तो युक्तः सदा यतेतात्मपरयोः परमायतस्थितः ॥ अनुवाद - साधु समग्र पदार्थों को जानकर अर्हत् प्ररूपित-सर्वसंवर मूलक धर्म का आश्रय ले। धर्म को ही अपने जीवन का प्रयोजन-परम लक्ष्य माने । तपश्चरण में अपनी शक्ति प्रगट करे । मानसिक वाचिक एवं शारीरिक प्रवृत्तियों को असत् कर्मों से बचाये रके । वह सदैव स्वपर कल्याण में यत्नशील रहे । अन्ततः मोक्ष की अभिलाषा रखे।
टीका - किञ्च सर्वमेक्तद्धयमुपादेयञ्च ज्ञात्वा सर्वज्ञोक्तं मागं सर्वं संवररूपम् अधितिष्ठेत् आश्रयेत् धर्मेणार्थो धर्म एव वाऽर्थः परमार्थेनान्यस्यानर्थरूपत्वात् . धर्मार्थः स विद्यते यस्यासौ धर्मार्थी धर्मप्रयोजनवान्
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