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वैतालिय अध्ययन के समान है । वैसे पुरुष को संबोधित कर कहा गया है कि हे अन्ध तुल्य पुरुष ! एकमात्र प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने के कारण कार्य और अकार्य के ज्ञान से रहित पुरुष तुम सर्वज्ञ द्वारा व्याहत-निरुपित आगमों में श्रद्धाशील बनो । एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण के रूप में स्वीकृत करने से समस्त व्यवहार लुप्त हो जाते हैं फिर तुम्हारा स्वयं का क्या अस्तित्व होगा क्योंकि प्रत्यक्ष को ही एक मात्र प्रमाण स्वीकार करने पर कौन किसका पिता है, कौन किसका पुत्र है इत्यादि व्यवहार भी नहीं टिक सकता । असर्वज्ञपुरुष द्वारा कथित दर्शन को स्वीकार करने वाले ! पहले पहल तो ऐसा है तुम स्वयं अर्वागदी-मात्र सम्मुखीन पदार्थ को देखने वाले हों, उस पर भी मात्र एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण रूप में स्वीकार करने वाले दर्शन में विश्वास करते हो, ऐसी स्थिति में यदि तुम सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित आगम को स्वीकार नहीं करोगे तो कार्य तथा अकार्य की विवेचिता-विवेक से रहित होकर नेत्रहीन पुरुष के तुल्य हो जाओगे अथवा हे अन्य दर्शन में आस्थाशील पुरुष ! चाहे तुम अदक्षदक्षता या निपुणता रहित हो अथवा दक्ष-दक्षता या निपुणता सहित हो, कैसे भी क्यों न हो, तुमको अचक्षुदर्शनकेवल दर्शन एवं केवल्य ज्ञान के धनी पुरुष द्वारा जो हित-आत्म कल्याण का मार्ग प्राप्त है उसमें श्रद्धा करनी चाहिये । कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य निपुण हो या अनिपुण हो, सर्वज्ञ द्वारा प्ररुपित हितमय-कल्याणप्रद दर्शन में श्रद्धा रखनी चाहिये । अथवा हे अदृष्ट-अर्वागदर्शिन ! अतीत-भूत, अनागत-भविष्य व्यवधानयुक्त तथा सूक्ष्म पदार्थों के दृष्टा सर्वज्ञ पुरुष ने जो व्याहृत-अभिहित किया है उसमें श्रद्धाशील बनो । हे अदृष्ट दर्शन! हे अदक्ष दर्शन ! असर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित दर्शन का अनुसरण करने वाले ! तुम अपने आग्रह का परित्याग कर सर्वज्ञ द्वारा भाषित मार्ग में श्रद्धा करो । यह तात्पर्यार्थ है।
कहते हैं प्राणी सर्वज्ञ द्वारा भाषित मार्ग में श्रद्धा क्यों नहीं करता जिसे उदिष्टकर इस प्रकार उपदेश कर रहे हो । इसका कारण बताते हुए आगमकार कहते हैं-यहां गाथा में 'हु' शब्द वाक्यालंकार के अर्थ में आया है । जिस पुरुष का दर्शन, सम्यक्ज्ञान अत्यन्त अवरुद्ध हो गया है उसे निरुद्ध दर्शन कहा जाता है । फिर प्रश्न उठाते हैं कि किसके द्वारा उसका ज्ञान अवरुद्ध हो गया है । फिर प्रश्न उठाते हैं कि किसके द्वारा उसका ज्ञान अवरुद्ध हो गया है । उसका समाधान करते हुए कहते हैं कि प्राणी जिससे मोह मूढ़ बनते हैं, उस मिथ्या दर्शन आदि तथा ज्ञानावरणीयादि स्वकृत कर्मों द्वारा जिसका ज्ञान अवरुद्ध हो गया वह सर्वज्ञ भाषित मार्ग में श्रद्धाशील नहीं होता । अतः आगमकार उस मार्ग में श्रद्धा करने की प्रेरणा देते हैं।
दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निव्विंदेज सिलोगपूयणं ।
एवं सहितेऽहिपासए आयतुले पाणेहिं संजए ॥१२॥ छाया - दुःखी मोहं पुनः पुनर्निर्विन्देत श्लोकपूजनम् ।
एवं सहितोऽधिपश्येद् आत्मतुल्यान् प्राणान् संयतः ॥ अनुवाद - दुःखयुक्त प्राणी पुनः पुनः मोहमूढ़ बनता है । साधु अपने श्लोक-कीर्ति, स्तुति, पूजा-सम्मान का परित्याग कर दे । ज्ञान आदि से युक्त संयताचारी साधु सभी प्राणियों को आत्मतुल्य-अपने समान समझे ।
टीका-पुनरप्युपदेशान्तरमाह-दुःखम् असातवेदनीयमुदयप्राप्तं तत्कारणं वा दुःखयतीति दुःखं तदस्याऽस्तीति दुःखी सन् प्राणी पौनः पुन्येन मोहं याति सदसद्विवेकविकलोभवति । इदमुक्तं भवति-असातोदयाद् दुःखमनुभवन्नात्तों
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