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वैतालिय अध्ययनं - को यथावत समझते हैं, अनुभव करते हैं । वे ही चारों ओर से-सब ओर से अपना हित-श्रेयस या कल्याण क्या है, इसे जानते हैं । अन्य नहीं जानते ।
णो काहिए होज संजए, पासणिए णय संपसारए ।
णच्चा धम्मं अणुत्तरं कयरिरिए णयावि मामए ॥२८॥ छाया - नो काथिको भवेत्संयतः नो प्राश्रिको न च संप्रसारकः ।
ज्ञात्वा धर्म मनुत्तरं कृतक्रियो न चाऽपि मामकः ॥ अनुवाद - संयत-संयमाराधक पुरुष काथिक न बने-धर्म विरुद्ध कथा वार्ता न करे । वह प्राश्निक न हो-सांसारिक प्रश्नों का उत्तर न दे, भविष्य वाणी न करे । संप्रसारक-वर्षा होने या धन कमाने के उपाय न बताये । वह अनुत्तर-सर्वोत्तम धर्म को जानकर संयम का परिपालन करे, किसी भी वस्तु पर ममत्त्व न रखे।
टीका - तथा संयतः प्रवजितः कथया चरतिकाथिकः गोचरादौ न भवेद् यदि वा विरुद्धां पैशून्यापादनीं स्त्रयादिकथां वा न कुर्यात् तथा प्रश्नेन राजादिकिंवृत्तरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निको न भवेत्, नाऽपि संप्रसारकः देववृष्टयर्थकाण्डादिसूचककथाविस्तारको भवेदिति किं कृत्वेति दर्शयति-ज्ञात्वा अवबुध्य नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरस्तं श्रुतचारित्राख्यं धर्म सम्यगवगम्य तस्य हि धर्मस्यैतदेवफलं यदुत विकथानिमित्तपरिहारेण सम्यक् क्रियावान् स्यादिति, तद्दर्शयति कृता स्वभ्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियः तथाभूतश्च न चाऽपि मामको ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाग्रही भवेदिति ॥२८॥
टीकार्थ - प्रव्रजित-आर्हति श्रमण दीक्षा में दीक्षित संयताचारी साधक भिक्षा आदि के समय कथा न करे अथवा पैशुन्य-चुगली आदि असत् कथन तथा स्त्री सम्बन्धी-अब्रह्मचर्य विषय कथोपकथन न करे । यदि कभी कोई राजा आदि अपने राज्य, देश, आदि के संबंध में प्रश्न करे तो एक ज्योतिषी की ज्यों उसके प्रश्न का फलादेश न कहें । देववृष्टि-मेघों द्वारा की जाने वाली वर्षा तथा धन प्राप्ति के उपाय भी एक संयमी न बतलाये । वह श्रुत एवं चारित्रधर्म को सर्वोत्तम जाने तथा संयम का अनुष्ठान करे क्योंकि लोकोत्तर-सर्वोत्तममोक्षमूलक धर्म को जानने का यही फल है । विकथा-निरर्थक एवं विपरीत कथा एवं निमित्त भाषण-भविष्यवाणी आदि कार्यों का परित्याग कर सम्यक् क्रिया-धार्मिक या आध्यात्मिक क्रिया के अनुसरण में तत्पर रहे । अमुक वस्तु मेरी है, मैं उसका मालिक हूँ, इस तरह कहता हुआ परिग्रहाग्रही-परिग्रह का आग्रह रखने वाला न बने।
छन्नं च पसंस णो करो, नय उक्कोसपगास माहणे ।
तेसिं सुविवेग माहिये पणया जेहिं सुजोसियं धुयं ॥२९॥ छाया - छन्नं च प्रशस्यं च न कुर्य्यानचोत्कर्ष प्रकाशं माहनः ।
तेषां सुविवेक आहितः प्रणताः यै सुजुष्टं धुतम् ॥ अनुवाद - माहण-अहिंसा प्रधान साधक क्रोध, अभिमान, माया और लोभ में प्रवृत्त न हो । जिन साधकों ने अष्टविध कर्मों का जिससे ध्वंस होता है, ऐसा संयम स्वीकार किया है, उन्हीं का उत्तम-श्रेष्ठ विवेक, ज्ञान संसार में समादृत है । वे ही धर्म में संलग्न हैं । .
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