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वैतालिय अध्ययनं
ता है।
मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं ।
अहियं च असाहु सोयती से थणति परिदेवती बहु ॥७॥ छाया - मा पश्चादसाधुता भवे दत्येह्यनुशाध्यात्मानम् ।
अधिकञ्चासाधुः शोचते स स्तनति परिदेवतेबहु ॥ अनुवाद - मृत्यु के पश्चात् बुरी गति प्राप्त न हो, यह सोचकर मानव सांसारिक भोगों से अपनी आत्मा को दूर कर दे और उसे यह शिक्षा दे कि वैसा करने वाला असाधु-साधनारहित धर्मानुष्ठान विवर्जित पुरुष बहुत शोक करता है-विलाप करता है, चिल्लाता है ।
टीका - किमिति काम परित्यागो विधेय इत्याशङ्कयाह-मा पश्चात् मरणकाले भवान्तरे वा कामानुषङ्गाद् असाधुता कुमतिगमनादिरूपाभवेत् प्राप्नुयादिति, अतो विषयासङ्गादात्मानम् अत्येहि त्याजय तथा आत्मानञ्च अनुशाधि आत्मनोऽनुशास्तिं कुरु तथा हे जीव ! यो हि असाधुः असाधुकर्मकारी हिंसाऽनतस्तेयादौ प्रवृत्तः सन् दुर्गतौ पतितः अधिकम्अत्यर्थमेव शोचति स च परमाधार्मिकैः कदीमानः तिर्यक्षुवः क्षुधादिवेदनाग्रस्तोऽत्यार्थ स्तनति सशब्दं निःश्वसिति तथा परिदेवते विलपति आक्रन्दति सुंवह्विति हा मातर्मियत इति. त्राता नैवाऽस्ति साम्प्रतं कश्चित् किं शरणं मे स्यादिह दुष्कृतचरितस्य पापस्य । इत्येवमादीनि दुःखान्यसाधुकारिणः प्राप्नुवन्तीत्यतो विषयानुषङ्गो न विधेय इत्येव मात्मनोऽनुशासनं कुर्विति सम्बन्धनीयम् ॥७॥
टीकार्थ - काम वासना का परित्याग क्यों करना चाहिये । इसका निराकरण करते हुए आगमकार कहते हैं -
काम भोगों में आसक्ति युक्त-तन्मय रहने के कारण मरणकाल में तथा दूसरे भव में दुर्गति न हो, घोर यातना न भोगनी पड़े, इस हेतु विषय वासनाओं से अपने को पृथक् रखना चाहिये । अपनी आत्मा को इस प्रकार जागृत करना चाहिये कि-हे आत्मन् ! जो हिंसा, असत्य, चोरी आदि असत् कर्म करता है वह असाधुअनाचार युक्त पुरुष बुरी गति में-नरक में जाकर परमाधार्मिक देवों द्वारा उत्पीडित किया जाता है, अत्यन्त शोकान्वित होता है । वह तिर्यञ्च योनि पाकर भूख से व्याकुल रहता हुआ अत्यन्त क्रंदन करता है, तथा रोता हुआ विलाप करता हुआ कहता है-माँ ! मैं मर रहा हूँ । इस समय ऐसा कोई नहीं है जो मेरी रक्षा करें । मैंने बहुत पाप किया है । मुझ पापी को इस समय कौन शरण-त्राण दे सकता है । पापकर्मा पुरुष इस प्रकार अत्यन्त दुः र भोगते हैं । अतएव विषय संसर्ग नहीं करना चाहिये । अपनी आत्मा को ऐसी शिक्षा दो।
* * * इह जीविय मेव पासहा, तरुण एवा (णेवा) ससयस्स तुती ।
इतर वासे य बुज्झह गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया ॥८॥ छाया - इह जीवितमेव पश्यत तरुण एव वर्षशतस्य त्रुटयति ।
इत्वरवासञ्च बुध्यध्वं गृद्धनराः कामेषु मूर्च्छिना ॥ अनुवाद - इस मनुष्य लोक में अपने जीवन की ओर देखो । एक मनुष्य शतायु होकर के भी युवावस्था में ही टूट जाता है-मर जाता है । यह जीवन थोड़े के समय का निवास है, ऐसा समझो। यह सब देखते हुए गृद्ध-अत्यन्त लोलुप क्षुद्र जन ही विषय भोग में मूर्च्छित-आसक्त रहते हैं।
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