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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । टीकार्थ - आगमकार अब इसी विषय में दूसरा उपदेश देते हुए कहते हैं -
मृग आदि पशु शिकारी द्वारा कूटपाश-फंदे आदि के प्रयोग से जब अनेक तरह से घायल हो जाता है-थक जाता है, दुर्बल हो जाता है तब वह अनेक प्रकार से प्रेरित किये जाने पर भी परिश्रांति के कारण चल नहीं सकता अथवा 'वाह' शब्द का अर्थ वहन कराने वाला हैं । यह गाडीवान का बोधक है । जैसे एक गाड़ीवान गाड़ी को यथावत-यथाविधि या ठीक ठीक नहीं चला रहा हो-चाबुक मार मार कर बैल को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करता हो, दुर्बलता के कारण वह बैल विषम-ऊँचे नीचे, उबड़ खाबड़ भाग में चल नहीं सकता वह मरणान्त कष्ट पाकर भी-जी जान लगाकर भी दुर्बलता के कारण उस भार को ढोने में असमर्थ रहता है । वही कीचड़ आदि विषम स्थानों में फंस जाता है और विषाद पाता है, दुःखी होता हैं।
एवं कामेसणं विऊ अजसुए पयहेज संथवं ।
कामी कामे ण कामए लद्धेवावि अलद्ध कण्हुई ॥६॥ छाया - एवं कामेषणायां विद्वान् अद्यश्च प्रजह्यात्संस्तवम् ।
कामी कामान्न कामये ल्लब्धान्वाऽप्यलब्धान् कुतश्चित् ॥ अनुवाद - जो पुरुष कामैषणा-विषय वासनामूलक कार्यों की खोज में चतुर-चालाक होता है वह आज या कल कामभोगों का परित्याग कर दे, मात्र ऐसा सोचा जा सकता है किन्तु उनका परित्याग नहीं कर सकता । अतः काम भोग की कामना करनी ही नहीं चाहिये । जो कामभोग प्राप्त हैं उनको अप्राप्त की ज्यों मानकर उनके प्रति निस्पृह-निराकांक्ष हो जाना चाहिये ।।
टीका - दार्टान्तिक माह - 'एवम्' अनन्त रोक्तया नीत्या कामानां शब्दा दीनां विषयाणां या गवेषणा प्रार्थना तस्यां कर्तव्यायां 'विद्वान' निपुणः काम प्रार्थना सक्तः शब्दादिपङ्के मग्नः स चैवंभूतोऽद्यश्वो वा संस्तवं परिचयं काम सम्बन्धं प्रजह्यात् किलेति, एव मध्यवसाय्येव सर्वदाऽवतिष्ठते न च तान् कामान् अबलो बलीवर्दवत विषम मार्ग त्यक्त मलं, किञ्च-नचैहिकामष्मिकापायदर्शितया कामीभत्वोपनतानपि कामान शब्दादिविषयान् वैरस्वामिजम्बूनामादिवद्वाकामयेद भिलषेदिति, तथा क्षुल्लककुमारवत् कुत श्चिन्निमित्तात् "सुझुगाइय" मित्यादिना प्रतिबुद्धो लब्धानपि प्राप्तानपि कामान् अलब्धसमान् मन्यमानो महासत्त्वतया तन्निस्पृहो भवेदिति ॥६॥
टीकार्थ - आगमकार पूर्व वर्णित दृष्टान्त का सार बतलाते हुए निरूपित करते हैं -
जैसा पहले वर्णन किया गया-जो पुरुष शब्दादि इंद्रिय संबंधी भोगों की गवैषणा में निपुण-चतुर या चालाक होता है अर्थात् काम की अभ्यर्थना में आसक्त होता है, वह शब्द आदि विषयों के कीचड़ में फंस जाता है, वह आज या कल काम भोग को त्याग दे-ऐसा विचार मात्र किया जा सकता है किंतु कमजोर बैल जैसे विषम मार्ग को नहीं छोड़ सकता, उसी प्रकार वह काम भोगों का त्याग नहीं कर सकता । कामयुक्तकाम्य पदार्थों की सुविधायुक्त होकर भी ऐहिक और पारलौकिक कष्टों को देखता हुआ महासत्व-आत्मबलयुक्त पुरुष प्राप्त शब्दादि इंद्रिय भोगों की उसी प्रकार इच्छा न करे जैसा जम्बूस्वामी एवं वज्रस्वामी आदि ने किया था । किसी भी निमित्त से प्रतिबोध प्राप्त छुल्लक कुमार की ज्यों प्राप्त विषय भोगों को अप्राप्त के समान समझकर वह उनसे निस्पृह, निराकांक्ष रहे-उनकी चाह न करे ।
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