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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
में आसक्त नहीं होने के कारण संसार रूपी समुद्र के किनारे के निकट पहुंच हुए हैं। यह जानने गोय है कि स्त्री संसर्ग के परित्याग के पश्चात् ही मुक्ति प्राप्त होती है। जिस पुरुषों ने काम भोगों को रोग के समान समझा है, वे मुक्त पुरुष के समान बतलाये गये हैं। कहा भी है- जिन्होंने पुष्प तथा फल का रस, मदिरा, मांस एवं महिलाओं को जानकर उन्हें अनर्थ का हेतु समझकर छोड़ दिया है, उन दुष्कर-कठोर कर्म करने वाले पुरुषों को वन्दन करता हूँ।
यहां तीसरे चरण में 'उड्ढं तिरियं अहेतहा' ऐसा पाठान्तर भी पाया जाता है जिसका यह तात्पर्य है कि उर्ध्व-सौधर्मादि-देवलोक में, तिर्यक् लोक में एवं अधः - भवनपति आदि लोक में जो काम भोग विद्यमान है, उन्हें जो पुरुष रोग के तुल्य समझते हैं, वे उन पुरुषों के सद्दश हैं जिन्होंने संसार सागर को पार कर दिया
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अग्गं वणिएहिं आहियं, धारंती राईणिया इहं । एवं परमा महव्वया अक्खाया उ सराइभोयणा ॥३॥
छाया अग्रं वणिग्भि राहितं धारयन्ति राजान इह ।
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एवं परमानि महाव्रतानि आख्यातानि सरात्रिभोजनानि ॥
अनुवाद - वणिक् जनों - व्यापारियों द्वारा लाये हुए उत्तम रत्नों तथा वस्त्रों आदि को नृपति- गण धारण करते हैं इसी प्रकार आचार्यों-गुरुओं द्वारा आख्यात - निरूपित रात्रि भोजन परित्याग सहित पांच उत्तम महाव्रतों को मुनिगण धारण करते हैं- स्वीकार करते हैं, पालन करते हैं ।
टीका - पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याह 'अग्रं' वर्यं प्रधानं रत्नवस्त्राभरणादिकं तद्यथा वणिग्भिर्देशान्तराद् 'आहितम्' ढौकितं राजानस्तत्कल्पा ईश्वरादयः 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके ' धारयन्ति' विभ्रति एवमेतान्यपि महाव्रतानि रनकल्पानि आचार्यैराख्यातानि प्रतिपादितानि नियोजितानि 'सरात्रिभोजनानि' रात्रिभोजन विरमणषष्ठानि साधवो विभ्रति, तुशब्दः पूर्वरलेभ्यो महाव्रतरत्नानां विशेषापादक इति, इदमुक्तं भवति यथा प्राधानरत्नानां राजान एव भाजनमेवं महाव्रत रत्नानामपि महासत्वा एंव साधवो भाजनं नान्ये इति ॥३॥
टीकार्थ - आगमकार आगे और उपदेश देते हुए प्रतिपादित करते हैं - व्यापारियों द्वारा दूसरे देशों से लाये हुए बहुमूल्य रत्न, वस्तु, अलंकार आदि को नृपतिगण तथा ऐश्वर्यशाली सम्पन्न जन इस लोक में धारण करते हैं, इसी प्रकार आचार्यों द्वारा आख्यात प्रतिपादित नियोजित रात्रि भोजन विरमण सहित पांच महाव्रत - छ: व्रत धारण करते हैं । इस गाथा में 'तु' शब्द पूर्वोक्त रत्नों की अपेक्षा महाव्रत रूपी रत्नों की विशेषता सूचित करता है। 'इसका अभिप्राय यह कि जैसे उत्तम - बहुमूल्य रत्नों के राजा ही पात्र होते हैं- वे ही धारण करने योग्य होते हैं उसी प्रकार महाव्रत रूपी रत्नों के महासत्त्व - महान् आत्मबल के धनी साधु ही पात्र होते हैं अन्य नहीं ।
जे इह सायाणुगा नरा अज्झोववन्ना कामेहिं मुच्छिया । कवणेण समं पब्भिया, न वि जाणंति समाहिमाहितं ॥४॥
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