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वैतालय अध्ययनं
अज्ञान के कारण जो दुःख-असत् वैद्य या प्रतिकूल वेदनीय अथवा दुःख के कारण रूप अष्ट विध कर्म बद्ध स्पृष्ट एवं निकाचिंत रूप से उपचित-संग्रहित हुए हैं वे तीर्थंकर प्रतिपादित सप्तदशविध संयम के अनुसरण या प्रतिपालन में प्रतिक्षण नष्ट होते जाते हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि जिस सरोवर में पानी आने का नाला बन्द है उसमें पहले से एकत्रित जमा हुआ जल सूर्य की किरणों से प्रतिदिन घटता जाता है - सूखता जाता है । उसी प्रकार जिस साधक ने आश्रव द्वार को संवृत- अवरुद्ध कर दिया है। इंद्रियों के योग प्रवृत्ति तथा कषायों को रोकने में जो सदा जागृत रहता है, उस संवृत्तात्मा साधक के अनेक जन्मों में अज्ञान द्वारा संचित कर्म संयम के अनुष्ठान - अनुसरण से क्षीण हो जाते हैं। जो साधक संवृतात्मा एवं सदाचरणशील हैं, वे मृत्यु को -मरणधर्मा मनुष्य भव को छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यहां उपलक्षण से मरण के साथ-साथ जाति, जरा, शोक आदि भी लिये हैं अर्थात् उनको भी वह छोड़ जाता है । सदा के लिये उनसे छूट जाता है जिनमें सत् और असत् का भेद करने का विवेक या ज्ञान होता है उन्हें पंडित कहा जाता है । वे पंडित - सर्वज्ञ ऐसा कहते हैं । ॐ ॐ ॐ
जे विन्नणाहि जोसिया, संतिन्नेहिं समं वियाहिया । तम्हा उड्ढति पासहा अदक्खु कामाइ छाया ये विज्ञापनाभिर्जुष्टाः संतीर्णैः समं व्याख्याताः । तस्माद् ऊर्ध्वं पश्यत अद्राक्षुः कामान् रोगवत् ॥
रोगवं ॥२॥
अनुवाद जो पुरुष स्त्रियों से जुष्ट- सेवित नहीं हैं, वे मुक्त पुरुषों के तुल्य है । स्त्री परित्याग - विषय वासना के परित्याग के अनन्तर ही मुक्ति प्राप्त होती है, यह जानना चाहिये । जिस पुरुष ने काम भोगों को रोग के समान समझा है, वे मुक्त पुरुषों के समान हैं ।
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टीका - येऽपि च तेनैव भवेन न मोक्षमाप्नुवन्ति तानधिकृत्याह - ये महासत्त्वाः कामार्थिभि र्विज्ञाप्यन्ते यास्तदर्थिन्यो वा कामिनं विज्ञापयन्ति ता विज्ञापनाः स्त्रिय स्ताभिः अजुष्टा: असेविताः क्षयं वा अवसायलक्षणमतीतास्ते सन्तीर्णे, मुक्तैः समं व्याख्याताः, अतीर्णा अपि संतो यतस्ते निष्किञ्चनतया शब्दादिषु विषयेष्वप्रतिबद्धाः संसारोदन्वत स्तटोपान्तवर्तिनो भवन्ति, तस्माद् उर्ध्वमिति मोक्षं योषित्परित्यागाद्वोर्ध्वं यद् भवति तत्पश्यत यूयम् । ये च कामान् रोगवद् व्याधिकल्पान् अद्राक्षुः दृष्टवन्तस्तेसंतीर्णसमाः व्याख्याताः तथा चोक्तम् -
“पुप्फफलाणं च रसं सुराइ मंसस्य महिलियाणं च । जाणंता जे विरया ते दुक्करकार वंदे ॥१॥" तृतीयपादस्य पाठान्तरं वा "उड्डुं तिरियं अहे तहा" ऊर्ध्वमिति सौधर्मादिषु तिरियमिति तिर्यग्लोके, अध इति भवनपत्यादौ ये कामास्तान् रोगवद् अद्राक्षु र्ये ते तीर्णकल्पाः व्याख्याता इति ॥२॥
टीकार्थ जो पुरुष इसी भव में मुक्ति प्राप्त नहीं करते, उनके संबंध में आगमकार कहते हैं।
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कामासक्त पुरुष जिसके प्रति अपनी कामना प्रकट करता है या जो कामसेवन हेतु किसी कामी पुरुष के समक्ष अपना अभिप्राय स्पष्ट करती है, उसे विज्ञापना कहा जाता है। विज्ञापना का तात्पर्य स्त्रियों से है। जो सत्पुरुष स्त्रियों से सेवित नहीं है अथवा जो दूसरे शब्दों में स्त्रियों के माध्यम से विनाश स्वरूप क्षय को प्राप्त नहीं हैं-उनमें अनासक्त होने के कारण अक्षयस्वरूप है, वे मुक्ति प्राप्त पुरुषों के समान बतलाये गये हैं। यद्यपि संसार रूपी सागर को पार नहीं किया तो भी वे अकिंचन होने के कारण तथा शब्द आदि इंद्रिय भोगों
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