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वैतालिय अध्ययनं
सदनुष्ठानप्रवृत्तेः, तामेव दर्शयति- सुष्टु संवृतः इन्द्रियनोइनिद्रयैर्विस्रोतसिकारहित इत्यर्थः तथा धर्मः श्रुतचारित्राख्यः तेनाऽर्थः प्रयोजनं स एवार्थः तस्यैव सद्भिरर्थ्यमानत्वाद् धर्मार्थः स यस्याऽस्तीति धमार्थी तथा उपधानं तपस्तत्र वीर्यवान् स एवंभूतो विहरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् समाहितेन्द्रियः संयतेन्द्रियः कुत एवं ? यत आत्महितं दुः खेनासुमता संसारे पर्य्यटता अकृतर्मानुष्ठानेन लभ्यते अवाप्यत इति तथाहि
"न पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥” तथाहि युगसमिलादिदृष्टान्तनीत्या मनुष्यभव एव तावद् दुर्लभः तत्राऽप्यार्य्यक्षेत्रादिकं दुरापमिति अत आत्महितं दुःखेनावाप्यत इति मन्तव्यम् । अपि च -
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भूतेषुजङ्गमत्वं तस्मिन् पञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्टम् । तस्मादपि मानुष्यं मानुष्येऽप्यार्थदेशश्च ॥१॥ देशे कुलं प्रधानं कुले प्रधाने जाति रुत्कृष्टा । जातौ रूप समृद्धी रूपे च बलं विशिष्टतमम् ॥२॥ भवति बले चायुष्कं प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानम् । विज्ञाने सम्यक्त्वं सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः ॥३॥ एतत्पूर्वश्चायं समासतो मोक्ष साधनोपायः । तत्र च बहु सम्प्राप्तं भवद्भिरल्पञ्च संप्राप्यम् ||४|| तत्कुरुतोद्यम मधुमानदुक्तमार्गे समाधि मास्थाय । त्यक्त्वा सङ्गमनार्य्यं कार्य्यं सद्भिः सदाश्रेयः ॥५इति॥३०॥ टीकार्थ जो पुरुष किसी वस्तु साथ विशेष आसक्ति या लगाव रखता है उन्हें 'स्निह' कहा जाता है । जो किसी वस्तु के सात स्नेह नहीं करता - अनासक्त रहता है उसे 'अस्निह' कहा जाता है । अथवा परीषह और उपसर्गों द्वारा जो पराभूत होता है, उसे 'निह' कहा जाता है । जो इनसे पराभूत या पराजित नहीं हो सकता उसे 'अनिह' कहा जाता है । संयमीसाधक परीषहों एवं उपसर्गों से कभी पराजय प्राप्त न करे । उनसे अपराजित रहे-यहां ऐसा आशय है । इस स्थान पर 'अणहे' पाठान्तर भी पाया जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि साधु पापर्जित - निरवद्य कर्मों का अनुष्ठान करे । वह अपने आत्महित में निरत रहे । अथवा ज्ञानादि से समायुक्त रहे अथवा सत्कर्मों के अनुसरण में, निरत होकर आत्मकल्याण सम्पादित करे-साधे । सदनुष्ठान एवं सदाचरण में प्रवृत्त होने के संदर्भ में आगमकार कहते हैं कि वह अपनी इन्द्रिय और नोइन्द्रिय द्वारा सांसारिक भोगों की तृष्णा से सर्वथा विरत रहे अर्थात् उनमें वैसी तृष्णा न व्यापे । साधु श्रुत और चारित्रमूलक धर्म को ही अपने जीवन का प्रयोजन समझे क्योंकि सत्पुरुष वे ही हैं जो सद्धर्म की अभ्यर्थना करते हैं । एक संयमी साधक तपश्चरण में आत्म पराक्रम प्रकट करे । अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता हुआ, संयम पथ का अनुसरण करे क्योंकि संसार सागर में भटकते हुए प्राणी को धर्म की साधना के बिना आत्मा का हित या श्रेयस प्राप्त नहीं होता । कहा गया है -
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यह मनुष्य भव-मनुष्य योनि में जन्म, जुगनु की रोशनी और बिजली की चमक की तरह अत्यन्त चंचल है, अस्थिर है । यदि इस अपार संसार सागर में कोई गिर पड़ा, चला गया तो फिर उसे पाना अत्यन्त कठिन है । जैसा युग समिल का दृष्टान्त संसार में प्रचलित हैं । तदनुसार कीली और जुएं का तो कभी न कभी परस्पर संयुक्त होना संभव हो जाय किंतु मनुष्य भव दुष्कर है। वैसा हो भी जाय तो आर्यक्षेत्र में जन्म पाना और भी दुर्लभ है । अतः आत्महित-आत्म कल्याण प्राप्त होना बहुत कठिन है । संसार के प्राणियों में जंगम-गतिशील-चलने फिरने में सक्षम प्राणी श्रेष्ठ है । उनमें भी पंचेन्द्रिय उत्तम है । पंचेन्द्रिय में भी मनुष्य
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समुद्र में पहले कीली को फेंक दिया गया फिर जुएं को डाल दिया गया । दोनों तरंगों द्वारा बहाए जाते हुए कभी न कभी मिल जाए। कीली जुएं में प्रविष्ट हो जाये। यह संभव है किन्तु पुण्यहीन द्वारा मनुष्य भव प्राप्त किया जाना दुष्कर है ।
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