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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीका किञ्च 'छन्नं' त्ति माया तस्याः स्वाभिप्रायप्रच्छादनरूपत्वात् ता न कुर्य्यात् । च शब्दः उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, तथा प्रशस्तये सर्वैरप्यविगानेनाद्रियत इति प्रशस्यो लोभस्तं च न कुर्य्यात्, तथा जात्यादिभिर्मदस्थानैर्लघुप्रकृतिं पुरुषमुत्कर्षंयतीत्युत्कर्षको मानस्तमपि न कुर्य्यादिति संबंध: तथाऽन्तर्व्यव्यवस्थितोऽपि मुखदृष्टिभ्रूभङ्गविकारै: प्रकाशीभवतीति प्रकाशः क्रोधस्तञ्च 'माहणे' त्ति साधु र्न कुर्य्यात्, तेषां कषायाणं यैर्महात्मभिः विवेकः परित्यागः आहितो जनति स्तएव धर्मम्प्रति प्रणता इति । यदि वा तेषामेव सत्पुरुषाणां सुष्ठु विवेकः परिज्ञानरूपः आहितः प्रथितः प्रसिद्धिं गतः त एव च धर्मं प्रति प्रणताः यै महासत्वैः सुष्ट जुष्टं सेवितं धूपतेऽष्टप्रकारं कर्मतद्रूपं संयमानुष्ठानं, यदि वा यैः सदनुष्ठायिभिः 'सुजोसिअं' त्ति सुष्टु क्षिप्तं धूननार्हत्वाद् धूतं कर्मेति ॥ २९ ॥
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टीकार्थ 'छन्न' शब्द माया के लिये है। अपने अभिप्राय का प्रच्छादन करना उसे छिपाना माया है । संयमी माया का अनुसरण न करे । इस गाथा में आया हुआ 'च' शब्द आगामी पदार्थों के समुच्चय के लिये हैं । सब लोग जिसका अविगान-आपत्ति के बिना आदर करते हैं, उसे प्रशस्य कहा जाता है। यह लोभ का नाम है, लोभ नहीं करना चाहिये । उत्कर्ष शब्द मान का वाचक है जिनकी प्रकृति छोटी होती है- वैचारिक स्तर नीचा होता है, उसे जाति आदि मदस्थान मत्त बना देते हैं। वह उनसे पागल जैसा हो जाता है । एक संयताचारी मुनि ऐसा न करे । प्रकाश लोभ का नाम 'क्योंकि वह मानव के भीतर रहता हुआ भी मुख, दृष्टि, भृकुटी भंग आदि विकारों से प्रकाशित होता है- व्यक्त होता है। संयमी क्रोध न करे। जिन महापुरुषों ने इन कषायों का परिवर्जन किया है, परित्याग किया है, वे ही सही माने में धर्म में प्रवृत्त हैं। धर्म के आराधक हैं । उन्हीं सात्विक पुरुषों का सद्ज्ञान- विवेक संसार में विश्रुत हुआ है- प्रसिद्ध हुआ है तथा वे ही धर्म में संलीन हैं । जिन महापुरुषों ने अष्टविध कर्मों का नाश करने वाले संयम को जीवन में भली भांति अपनाया है अथवा सत्कर्म में निरत जिन महापुरुषों ने आठ प्रकार के कर्मों को भलीभांति अपगत कर दिया है, वे ही धर्म के आराधक हैं। यहां कर्मों को जो 'धुत' कहा गया है उसका तात्पर्य उनके धूनन या क्षेपण करने योग्य अर्थ के साथ जुड़ा है ।
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छाया
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अणिहे सहिए सुसंवुडे धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । विहरेज्ज समाहिइंदिए अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ ॥ ३०॥
अस्निहः सहितः सुसंवृतः धर्मार्थी उपधानवीर्य्यः । विहरेत्समाहितेन्द्रियः आत्महितं दुःखेन लभ्यते ॥
अनुवाद - संयमी पुरुष किसी भी वस्तु में स्नेह या आसक्ति न रखे । जिन कार्यों से अपना श्रेयस - कल्याण सधे उनमें सदैव संलग्न रहे । वह अपनी इन्द्रियों एवं मन को गुप्त - पापों से रहित रखता हुआ धर्म की साधना में निरत रहे । वह तपश्चरण में अपना आत्म पराक्रम प्रकट करे तथा अपनी इन्द्रियों को वश में करके संयमानुष्ठान में अग्रसर रहे क्योंकि आत्मकल्याण बड़ी कठिनाई से सधता है ।
टीका अपि च स्निह्यत इति स्निह: नस्निह: अस्निहः सर्वत्र ममत्त्व रहित इत्यर्थः, यदि वा परीषहोपसर्गैर्निहन्यत इति निह: न निहोऽनिह: उपसगैरपराजित इत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'अणहे' त्ति नास्याघमस्तीत्यनघो निरवद्यानुष्ठायीत्यर्थः सह हितेन वर्तत इति सहितः सहितो युक्तो वा ज्ञानादिभिः स्वहितः आत्महितो व
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