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वैतालय अध्ययनं
तिरिया मणुया य दिव्वगा, उवसग्गा तिविहाऽहियासिया । लोमादीयं ण हारिसे, सुन्नगारगओ महामुनी ॥ १५ ॥
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छाया तैरश्चान् मानुषाँश्च दिव्यगान् उपसर्गान् त्रिविधानधि रोमादिकमपि न हर्षयेत् शून्यागारगतो महामुनिः ॥
अनुवाद सूने घर में टिका हुआ महामुनि - महान् आत्मा पराक्रम शील साधु वहां उपस्थित होने वाले पशु पक्षी विषयक, मानव विषयक तथा देव विषयक उपसर्गों तथा विघ्न-बाधाओं को सहन करे । भय से उसका एक रोम भी बाल भी न काँपे ।
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टीका साम्प्रतं त्रिविदोपसर्गाधिसहनमधिकृत्याह तैरश्चाः सिंह व्याघ्रादिकृतः तथा मानुषा अनुकूलप्रतिकूलाः सत्कारपुरस्कारदण्डकशाताडनादिजनिताः तथा दिव्यगा इति व्यन्तरादिना हास्यप्रद्वेषादिजनिताः एवं त्रिविधानप्युसर्गान् अधिसहेत् तोपसर्गै विकारं गच्छेत्, तदेव दर्शयति-लोमादिकमपि न हर्षयेद् भयेन रोमोममपि न कुर्य्यात् यदि वा एव मुपसर्गास्त्रिविधा अपि 'अहियासिय' त्ति अधिसोढ़ा : भवन्ति यदि रोभोद्मादिकमपि न कुर्य्यात् । आदि ग्रहणात् दृष्टिमुखविकारादिपरिग्रहः, शून्यागारगतः शून्यगृहव्यवस्थितस्य चोपलक्षणार्थत्वात् पितृवनादिस्थितो वा महामुनि र्जिनकल्पिकादिरिति ॥१५॥
टीकार्थ - साधु को तीन प्रकार के उपसर्ग सहने चाहिये । इस विषय को प्रस्तुत करते हुए आगमकार
कहते हैं
शेर बाघ आदि तिर्यक् प्राणियों द्वारा किया गया उपसर्ग तैरश्च तिर्यक्योनिकृत कहलाता है । मनुष्यों द्वारा दिया गया सत्कार पुरस्कार - आदर सम्मान आदि के रूप में अनुकूल तथा लट्ठी, चाबुक आदि द्वारा ताडन के रूप में प्रतिकूल उपसर्ग मानुष् उपसर्ग कहलाता है तथा व्यन्तर, भूत, प्रेत, देव, आदि द्वारा हास्य, विनोद, द्वेष, पीडा आदि रूप में किया गया उपसर्ग दिव्य या दिव्यग कहलाता है । इन तीनों प्रकार के उपसर्गों को सहन करे । इनसे विकार प्राप्त न करे । मन या शरीर में विपरीतता अनुभव न करे । इसलिये आगमकार कहते हैं कि ऐसी स्थिति में उसके रोम तक में भी अवसाद या पीडा व्याप्त न हो। दूसरे शब्दों में साधु इन उपसर्गों के आने पर डर से अपनी रोम भी न कंपाये । तभी वह साधु ऐसे त्रिविध उपसर्गों को सहन कर सकता है यदि उनके आने पर उसके एक रोम में भी भय न व्यापे । यहां आदि शब्द के प्रयोग से उपर कहे गये आदि प्राणियों का विकृत रूप में देखना एवं विकृत मुख आदि का ग्रहण है । यहां सूने घर में रहना उपलक्षण मात्र है । अतएव श्मशान आदि भय जनक स्थानों में टिके हुए जिन कल्पी मुनि के संबंध में भी यही बात समझनी चाहिये । यहां महामुनि शब्द जिन कल्पी के लिये आया है ।
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णो अभिकंखेज्ज जीवियं, नोऽविय पूयणपत्थए सिया । अब्भत्थ मुविंति भेरवा सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो ॥ १६ ॥
छाया नाभिकांक्षेत जीवितं नाऽपि च पूजनपार्थकः स्यात् । अभ्यस्ता उपयंति भैरवाः शून्यागारगतस्य भिक्षोः ॥
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