________________
वैतालिय अध्ययन अनुवाद - जो द्यूतकार-जुआरी चूत क्रीड़ा में अपराजित है-किसी से नहीं हारता वह द्यूत क्रीड़ा करता हुआ कृत नामक स्थान सतयुग को स्वायत्त करता है, जिसे जुए में सर्वोत्तम माना जाता है वह कलियुग, द्वापर या त्रेता नामक स्थानों को ग्रहण नहीं करता । उसी तरह एक विवेकशील पुरुष सर्वज्ञ प्ररूपित सर्वोत्तम कल्याणकारी धर्म को ही ग्रहण करता है-स्वीकार करता है, शेष स्थानों को छोड़ देता है ।
टीका - अपि च कुत्सितो जयोऽस्येति कुजयो द्यूतकारः, महतोऽपि द्यूतजयस्यसद्भिर्निन्दितत्वादनर्थहेतुत्वाच्च कुत्सितत्वमिति, तदेव विशिनष्टि-अपराजितोदीव्यन् कुशलत्वादन्येन न जीयते, अक्षैः वा पाशकैः दीव्यन् क्रीडंस्तत्पातज्ञः कुशलो निपुणः यथाऽसौ द्यूतकारोऽक्षैः पाशकैः कपकैर्वा रममाणः 'कडमेवे' त्ति चतुष्कमेव गृहीत्वा तल्लब्धजयत्वात्तेनैव दीव्यति, ततोऽसौ तल्लब्धजयः सन्न कलिं एककं नाऽपि त्रैतं त्रिकं च नाऽपि द्वापरं द्विकं गृह्णातीति ॥२३॥
टीकार्थ - जिस व्यक्ति की विजय या जीत निन्दा जनक होती है और लोग जिसकी भर्त्सना करते हैं उसे कुजय कहा जाता है । कुजय का अर्थ द्यूतकार या जुआरी है । द्यूतकार जुए में बहुत कुछ विजय कर लेने पर भी पुरुषों द्वारा निन्दित होता है, क्योंकि द्यूतगत विजय अनर्थ का हेतु है । इसलिये वह निन्दनीय है। आगमकार ने यहां द्यूतकार के लिये एक 'अपराजित' विशेषण का प्रयोग किया है । उसका अभिप्राय यह है कि जो द्यूतकार द्यूतकला में निपुण होने के कारण दूसरे द्यूतकारों से जीता नहीं जाता, वह अपराजित कहा जाता है । द्यूत कला में कुशल द्यूतकार पासों द्वारा या कोड़ियों द्वारा जुआ खेलता हुआ चौथे स्थान को पा लेता है । सर्वाधिक सफलता पा लेता है, उसे 'कृत' कहा जाता है । वह उसकी विजय का सूचक है । यों खेलता हुआ जुआरी कृत नामक स्थान द्वारा प्रभावापन्न विजयशील हो जाता है । वह फिर अन्य तीन स्थानों को नहीं पाता । प्रथम कलयुग, द्वितीय द्वापर तृतीय त्रेता उपमा के रूप में यहां ये तीन युग गृहीत है । यह ज्ञातव्य है कि कृत का अर्थ सतयुग होता है ।
एवं लोगंमि ताइणा बुइए जे धम्मे अणुत्तरे ।
तं गिण्ह हियंति उत्तम कडमिव से सऽवहाय पंडिए ॥२४॥ छाया - एवं लोके त्रायिणोक्तो यो धर्मोऽनुत्तरः ।
तं गृहाण हितमित्युत्तम कृतमिव शेष मपहाय पंडितः ॥ अनुवाद - इस प्रकार इस लोक में त्रायी-सबके त्राता धर्मोपदेश द्वारा सबकी रक्षा करने वाले, पापों से बचाने वाले सर्वज्ञ प्रभु द्वारा जो धर्म कहा गया है, वह अनुत्तर है-सर्वश्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है । यह समझ कर उसे ही प्राप्त करो, ग्रहण करो । जैसे एक कुशल द्यूतकार नीचे के तीनों स्थानों को छोड़कर उपर के 'कृत' स्थान को स्वायत्त करता है ।
टीका - दार्टान्तिकमाह - यथा द्यूतकारः प्राप्तजयत्वात् सर्वोत्तमं दीव्यं श्चतुष्कमेव गृह्णाति एवमस्मिन् लोके मनुष्य लोके तायिना त्रायिणा वा सर्वज्ञेनोक्तो योऽयंधर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः श्रुतचारित्राख्यो वा नास्योत्तरः अधिकोऽस्तीत्यनुत्तरः तमेकान्तहितमिति कृत्वा सर्वोत्तमञ्च गृहाण विस्रोतसिकारहितः स्वीकुरु, पुनरपि निगमना) तमेव दृष्टान्तं दर्शयति-यथा कश्चिद् द्यूतकारः कृतं कृतयुगं चतुष्कमित्यर्थः शेषमेककादि अपहाय त्यक्त्वादीव्यन्
169