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वैतालिय अध्ययन सर्वज्ञाः, यश्च साधुः 'गृहमात्रे' गृहस्थभाजने कांस्यपात्रादौ न भुङ्क्ते तस्य च सामायिक-माहुरिति सम्बन्धनीयनिति ॥२०॥
टीकार्थ - जो साधु-श्रमण अप्रासुक-सचित जल से घृणा करता है-सचित जल का सेवन नहीं करता जो प्रज्ञिा-निदान नहीं करता, जो लव-कर्म का अवसर्पण करता है-उससे पृथक् रहता है अर्थात् जो प्रवृत्ति कर्मबंध की हेतुभूत है, उसका त्याग करता है, सर्वज्ञों ने वैसे श्रमण को सामायक-समभावरूप कहा है । जो श्रणण गृहस्थों के कांसी आदि के बतनों में भोजन नहीं करता-सर्वज्ञों ने उसे भी सामायक, समभावरूप कहा है।
ण य संखय माहु जीवियं तहवि य बालजणो पगब्भइ । बाले पावेहिं मिजती इति संखाय मुणी ण मज्जती ॥२१॥ छाया - न च संस्कार्य माहुर्जीवितं तथाऽपि च बालजनः प्रगल्भते ।
बालः पापै मीर्यते इति संख्याय मुनि नै माद्यति ॥ अनुवाद - सर्वज्ञों ने कहा है कि टूटा हुआ जीवन (जीवन का धागा) फिर नहीं जोड़ा जा सकता है तो भी अज्ञानी प्राणी धृष्टता पूर्वक पापकर्म करता है-असत् कार्य करने में बड़ा ढीठ बना रहता है, वह अज्ञानी पुरुष पापी है । यह समझकर मुनि कभी मद-अहंकार नहीं करता ।।
टीका - किञ्च-न च, नैव जीवितम् आयुष्कं कालपर्यायेण त्रुटितं सत् पुनः 'संखय' मिति संस्कर्तुं तन्तुवत्सन्धातुं शक्यते इत्येव माहस्तद्विदः, तधापि-एवमपि व्यवस्थिते 'बालः' अज्ञो जनः 'प्रगल्भते' पापं कुर्वन् धृष्टो भवति, असदनुष्ठानरतोऽपि न लज्जत इति, स चैवम्भूतो बालस्तैरसदनुष्ठानापादितैः 'पापैः' कर्मभिः 'मीयते' तद्युक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, भ्रियते वा मेयेन धान्यादिना प्रस्थकवदिति, एवं 'संख्याय' ज्ञात्वा 'मुनिः' च यथावस्थितपदार्थानां वेत्ता 'न माद्यतीति' तेष्वसदनुष्ठानेष्वहं शोभनः कर्तेत्येवं प्रगल्भमानो मदं न करोति ॥२१॥
टीकार्थ - जो जीवन के रहस्यों को जानते हैं, वैसे विद्वान पुरुषों ने बताया है कि काल के पर्याय से टूटा हुआ प्राणियों का जीवन टूटे हुए धागों की ज्यों फिर जोड़ा नहीं जा सकता-गया हुआ जीवन लौटाया नहीं जा सकता फिर भी अज्ञानी पुरुष बड़ी धृष्टता-ढ़ीठपन के साथ पाप करता है । वह असत्-बुरे कर्म करता हुआ भी लज्जित नहीं होता-वैसा करते उसे शर्म नहीं आती । वह अज्ञानी प्राणी अशुभ प्रवृत्तियों से उत्पन्न पापों के कारण पापी माना जाता है, जैसे फसल निकालने के बाद प्रस्थक--कोठा अनाज आदि द्वारा भर दिया जाता है । उसी प्रकार वह अज्ञ प्राणी पापों से भर जाता है । यह देखकर पदार्थों के सत्य स्वरूप का ज्ञाता मुनि यह जानता हुआ कि पाप पूर्ण प्रवृत्तियां करने वाले लोगों में मैं ही एक ऐसा हूँ जो सदनुष्ठान या उत्तम कार्य कर रहा हूँ। यह सोच कर मद-अहंकार नहीं करता । मैं धर्मनिष्ठ हूँ, उत्तम कर्म करता हूँ, अन्य मनुष्य असद् अनुष्ठानकारी है, ऐसा अभिमान करना पाप है । अतः मुनि को अभिमान नहीं करना चाहिये।
छंदेण पले इमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा । वियडेण पलिंति माहणे, सीउण्हं वयसाऽद्रियासए ॥२२॥
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