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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् गृह्णाति एवं पण्डितोऽपि साधुरपि शेषं गृहस्थकुप्रावचनिकपार्श्वस्थादिभावमपहाय सम्पूर्ण महान्तं सर्वोत्तमं धर्म गृह्णीयादिति भावः ॥२४॥
टीकार्थ - दृष्टान्त का सार बतलाते हुए कहते हैं-एक कुशल द्यूतकार विजय प्राप्ति का साधन मानकर सर्वोत्तम चौथे पासे को ही-चौक को ही स्वीकार करता है, उसी तरह इस मनुष्य लोक में समस्त प्राणियों के परित्राता सर्वज्ञ प्रभु द्वारा प्रतिपादित क्षांति--क्षमाशीलता आदि और गुणयुक्त श्रुत चारित्रमूलक सर्वश्रेष्ठ धर्म को ही एकान्तः निश्चित रूप में हितकर श्रेयस्कर समझो-स्वीकार करो । आगमकार फिर उसी स्थान को निगमन के रूप में उपस्थापित करते हैं कि-एक द्यूतकार द्यूतक्रीडा करता हुआ प्रथम, द्वितीय, तृतीय स्थान को छोड़कर कृत नामक चतुर्थ स्थान को ही गृहीत करता है, इसी प्रकार विवेकशील साधु, गृहस्थ कुप्रावचनिक-कुत्सित या मिथ्या सिद्धान्तों का प्रवचन करने वाले-उपदेश करने वाले तथा पार्श्वस्थ-धर्म से बहिर्भूत या बहिष्कृत जनों को छोड़कर-उन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का त्याग कर सबसे महान् सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित धर्म को ग्रहण करे-उसका परिपालन करे।
उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा (म्म ) इह मे अणुस्सुयं ।
जंसी विरता समुट्ठिया कासवस्स अणुधम्म चारिणो ॥२५॥ छाया - उत्तराः मनुजानामाख्याताः ग्रामधर्मा इह मयानुश्रुतम् ।
येभ्यो विरताः समुत्थिताः काश्यपस्यानुधर्मचारिणः ॥ अनुवाद - आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रमुख अंतेवासी जम्बू आदि शिष्य समुदाय को सम्बोधित कर कहते हैं कि ग्रामधर्म-इंद्रियों के विषय सांसारिक भोगों का सेवन, ये मानवों के लिये उत्तर-कठिनाई से जीते जा सकने योग्य कहे गये हैं । मैंने आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव द्वारा सम्प्रेरित एवं प्रभु महावीर द्वारा प्रतिपादित यह तथ्य श्रवण किया है । उन सांसारिक भोग वासना मय विषयों का परित्याग कर जो संयम के अनुसरण में समुत्थित जागरूकतापूर्वक प्रयत्नशील हैं, वे भगवान महावीर के द्वारा प्ररूपित धर्म का अनुसरण करने वाले
___टीका - पुनरप्युपदेशान्तरमाह - उत्तराः प्रधानाः दुर्जयत्वात, केषाम् ? उपदेशार्हत्वान्मनुष्याणामन्यथा सर्वेषामेवेति, के ते ? ग्रामधर्माः शब्दादिविषयाः मैथुनरूपा वेति, एवं ग्राम धर्मा उत्तरत्वेन सर्वज्ञैराख्याताः मयैतदनु पश्चाच्छ्रतमेतच्च सर्वमेव प्रागुक्तं यच्च नक्ष्यमाणं तन्नाभेयेनाऽऽदितीर्थकृता पुत्रानुद्दिश्याभिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयन्ति, अतो मयैतदनुश्रुतमित्यनवद्यम् । यस्मिन्निति कर्मणि ल्यप्लोपे पञ्चमी सप्तमी वेति यान् ग्रामधर्मान् आश्रित्य ये विरता: संयमरूपेणोत्थिताः समुत्थितास्ते काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्धमानस्वामिनो वा सम्बन्धी यो धर्मस्तदनुचारिणः तीर्थंकरप्रणीतधर्मानुष्ठायिनो भवन्तीत्यर्थः ॥२५॥
टीकार्थ - आगमकार फिर और उपदेश देते हुए प्रतिपादित करते हैं -
उत्तर का अर्थ प्रधान है । जिसे तैर पाना या लांघ पाना कठिन होता है, वह उत्तर कहा जाता है । अतएव वह दुर्जय है । प्रश्न उपस्थित कर विषय को आगे बढ़ा रहे हैं किसके लिये ? इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि मनुष्यों के लिये क्योंकि मनुष्य ही उपदेशार्ह-उपदेश देने योग्य या उपदेश के पात्र हैं । ऐसा
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