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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीका किञ्च केनचिच्छयनादिनिमित्तेन शून्यगृहमाश्रितो भिक्षुः तस्य गृहस्य द्वारं कपाटादिना न स्थगयेन्नापि तच्चालयेत् यावत् 'न यावपंगुणे' त्ति 'नोद्घाटयेत्' तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद्धर्मादिकं मार्ग वा पृष्टः सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेन्नब्रूयात् । अभिग्रहिको जिन कल्पिकादिर्निरवद्यामपि न ब्रूयात्, तथा न समुच्छिन्द्यात् तृणानि कचवरं च प्रमार्जनेन नापनयेत् नाऽपि शयनार्थी कश्चिदाभिग्रहिकः तृणादिकं संस्तरेत् तृणैरपि संस्तारकं न कुर्य्यात् किं पुनः कम्बलादिना ? अन्यो वा शुषिरतृणं न संस्तरेदिति ॥१३॥
टीकार्थ साधु सोने आदि के निमित्त किसी सूने घर का आश्रय ले तो उस घर के दरवाजे को किवाड लगाकर बन्द न करे तथा उसके किवाड को न हिलावे। यदि उसके किवाड आदि बन्द हो तो उन्हें न खोले । वहां या कई और जगह ठहरे हुए साधु से कोई मार्ग आदि पूछे तो वह सावद्य पापयुक्त, दोषयुक्त वचन न बोले । यदि अभिग्रह धारी जिन कल्पी साधु हो तो वह निखद्य - अवद्य या पाप रहित वचन भी न बोले । वह साधु उस मकान के घास फूस, कूडा करकट आदि को झाड़ बुहार कर दूर न करे । कोई भी अभिग्रहधारी साधु अपने सोने के लिये घास फूस का बिछौना न लगाये। फिर कम्बल आदि की तो बात ही कहां है । कोई और साधु भी सुषिर - पौले व मुलायम घास फूस का बिछौना न बिछाये ।
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जत्थत्थमिए अणाउले समविसमाई मुणीऽहियासए । चरगा अदुवावि भेरवा अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥१४॥
छाया
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यत्रास्तमितोऽनाकुलः समविषमाणि मुनिरधिसहेत ।
चरका अथवाऽपि भैरवाः अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः ॥
अनुवाद चारित्र निष्ठ पुरुष जहां सूर्य अस्त हो जाय-छिप जाये वहीं अनाकुलभाव से क्षोभ रहित होकर निवास करे । वह स्थान सम विषम समतल उबड़ खाबड जैसा भी अनुकूल प्रतिकूल हो वह उसे सहन करे - काम में ले । यदि उस स्थान पर डांस, मच्छर हो, भय जनक प्राणी हो, सरिसृप पेट के बल रेंगने वाले सांप आदि प्राणी हो तो भी वहीं निवास करे ।
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टीका तथा भिक्षुर्यत्रैवास्त मुपैति सविता तत्रैव कायोत्सर्गादिना तिष्ठतीति यत्रास्तमितः तथाऽनाकुलः समुद्रवन्नक्रादिभिः परीषहोपसर्गेरक्षुभ्यन् समविषमाणि शयनासनादीन्यनुकूलप्रतिकूलानि मुनिः यथावस्थितसंसारस्वभाववेत्ता सम्यग् अरक्त द्विष्टतयाऽधिसहेत तत्र च शून्य गृहादौ व्यवस्थितस्य तस्य चरतीति चरकाः दंशमशकादयः अथवाऽपि भैरवाः भयानकाः रक्षः शिवादयः अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः भवेयुः तत्कृतांश्च परीसहान् सम्यगधिसहेतेति ||१४||
टीकार्थ - संयम साधना में अभिरत पुरुष, जहां सूरज छिप जाये उसी जगह कायोत्सर्ग आदि करके निवास करते हैं । अतएव कहा जाता है कि सूर्य जहां अस्त हो साधु वहीं पर परीसहों एवं उपसर्गों से व्याकुल न होता हुआ निवास करे। जैसे समुद्र मकर आदि से क्षोभ प्राप्त नहीं करता हुआ प्रशांत बना रहता है। वहां बैठने तथा सोने आदि के स्थान प्रतिकूल - दुविधापूर्ण तथा अनुकूल - सुविधाजनक हो तो भी संसार के सत्य स्वरूप का परिज्ञाता मुनि राग, द्वेष से विवर्जित होकर उनसे ऊंचा उठकर वह सब सहन करे । उस सूने घर आदि स्थानों में टिके हुए साधु को यदि डांस, मच्छर आदि प्राणी, भय जनक भूत प्रेत, शृंगाल, सर्प आदि प्राणियों द्वारा कष्ट उत्पन्न हो तो वह उसे सम्यक् - बिना घबराये स्थिरता और धीरतापूर्वक सहन करे ।
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