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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - साधु उपर्युक्त उपसर्गों, विघ्न-बाधाओं से उत्पीडित व्यथित होकर जीवन की कामना न करे तथा सत्कृत-सम्मानित होकर पूजा सम्मान महिमा-प्रशस्ति आदि की अभ्यर्थना न करे । यों पूजा-प्रतिष्ठा तथा जीवन से निरपेक्ष, सूने घर में टिके हुए साधु को भय जनक उपसर्ग सहने का अभ्यास हो जाता है ।
टीका - किञ्च स तै भैरवै रुपसर्गेरुदीर्णैस्तोतुद्यमानोऽपि जीवितं नाभिकाङ्केत जीवित निरपेक्षेणोपसर्गः सोढव्य इति भावः न चोपसर्गसहनद्वारेण पूजाप्रार्थकः प्रकर्षाभिलाषी स्यात् भवेत्, एवञ्च जीवितपूजानिरपेक्षेणासकृत् सम्यक सह्यमाणा भैरवाः भयानकाः शिवापिशाचादयोऽभ्यस्तभावं स्वात्मतामपसामीप्येन यान्ति गच्छन्ति तत्सहनाच्च भिक्षोः शन्यागारगतस्य नीराजित वारणस्येव शीतोष्णादिजनिता उपसर्गा: ससहा एव भवन्तीति भावः ॥१६॥ ___टीकार्थ - साधु उपर्युक्त भीषण उपसर्गों से उत्पीड़ित होता हुआ भी जीवन की आकांक्षा न करे । वह जीवन से निरपेक्ष रहता हुआ उसके चले जाने की परवाह नहीं करता हुआ उपसगों को सहता जाय यह अभिप्राय है । उपसर्गों-विघ्न बाधाओं और कठिनाइयों को सहने से सम्मान मिलेगा यों सोचकर वह यश प्रतिष्ठा
और बढ़ाई की आकांक्षा न करे । यों जीवन और मान सम्मान की जरा भी अपेक्षा न रखता हुआ साधु बार बार भय जनक पिशाच, शृंगाल आदि द्वारा जनित उपद्रवों को सहता है । वह उपसर्गों को सहने में इतना अभ्यस्त हो जाता है कि वे भूत प्रेत आदि उसे आत्मीयवत् लगते हैं । उन उपसर्गों को यों बर्दाश्त करने से सूने घर में टिका हुआ वह साधु शीतलता-सर्दी, उष्णता-गर्मी आदि से उत्पन्न उपसर्गों को मद विह्वल हाथी की ज्यों आराम से सहन कर लेता है ।
उवणीयतरस्स ताइणो भयमाणस्स विविक्कमासणं ।
सामाइय माहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ॥१७॥ छाया - उपनीततरस्य तायिनो भजमानस्य विविक्तमासनम् ।
सामायिक माहुः तस्य यद्य आत्मानं भये न दर्शयेत् ॥ अनुवाद - जो साधु उपनीततर है-जिसने अपनी आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुंचा दिया है जो त्रायी-असत् कर्म से निवृत्त होकर अपना तथा औरों को निवृत्त कर दूसरों का त्राण करता है, रक्षा करता है, उपकार करता है । विविक्त-एकांत स्त्री, नपुंसक आदि से विवर्जित स्थान में निवास करता है तीर्थंकरों ने ऐसे मुनि को सामायिक चारित्र कहा है । ऐसे मुनि को किसी भी स्थिति में भयभीत नहीं होना चाहिये।
टीका - पुनरप्युपदेशान्तरमाह - उप सामीप्येन नीतः प्रापितो ज्ञानादावात्मा येन स तथा अतिशयेनोपनीत नीततरस्तस्य 'तायिनः' परात्मोपकारिणः नायिणो वा सम्यकपालकस्य तथा 'भजमानस्य' सेवमानस्य 'विविक्तं' स्त्री पशुपण्डकविवर्जितम् आस्यते स्थीयते यस्मिन्निति तदासनं वसत्यादि, तस्यैवम्भूतस्य मुनेः 'सामायिकं' समभावरूपं सामायिकादि चारित्रमाहुः सर्वज्ञाः 'यद्' यस्मात् ततश्चारित्रिणा प्राग्वस्थितस्वभावेन भाव्यम्, यश्चात्मानं 'भये' परिषहोपसर्गजनिते 'न दर्शयेत्' तद्भीरु न भवेत् तस्य सामीयिकमाहुरिति सम्बन्धनीयमं ॥१७॥
टीकार्थ - आगमकार फिर दूसरा उपदेश देते हैं - जिस पुरुष ने अपने आपको ज्ञान आदि के उपसमीप, नीत-पहुंचा दिया है, वह उपनीत कहा जाता है । जो अत्यधिक उपनीत होता है, उसे उपनीततर कहा
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