________________
वैतालिय अध्ययनं अनुवाद - परिग्रह जिसमें स्वर्ण, रजत आदि सम्पत्ति तथा कुटम्बी संबंधी जनों का समावेश है, इस लोक तथा परलोक में दुःखप्रद है । ये सभी मिट जाने वाले हैं । इस तथ्य को-सच्चाई को जो जानता हैऐसा कौन व्यक्ति है जो घर में रहना, गृहस्थ या सांसारिक जीवन बिताना अपने लिये अच्छा समझे ।
टीका - अत्रान्तरे नागार्जुनीयास्तु पठन्ति “सोउण तयं उवट्ठियं केइ गिही विग्घेण उद्विया । धम्मंमि अणुत्तरे मुणी, तंपि जिणिज्ज इमेण पंडिए ॥१॥ एतदेवाह-इह अस्मिन्नेव लोके हिरण्यस्वजनादिकं दुःखमावहति। 'विउ' त्ति विद्याः जानीहि, तथाहि
अर्थानामर्जने दु:खमर्जितानाञ्च रक्षणे । आये दु:खं व्यये दु:खं धिगर्थं दुःखभाजनम्" ॥१॥ तथाहि- . "रेवापयः किसलयानि च सल्लकीनां विन्ध्योपकण्ठविपिनं स्वकुलञ्च हित्वा । किं ताम्यसि द्विप! गतोऽसि वशं करिण्याः, स्नेहो निबन्धनमनर्थपरम्परायाः" ॥२॥
परलोके च हिरण्य स्वजनादि ममत्वापादित कर्मजं दुःखं भवति, तदप्यपरं दुःखमावहति, तदुपादान कर्मोपादानादितिभावः । तथैवदुपार्जितमपि विध्वंसनधर्मं विशरारुस्वभावं गत्वरमित्यर्थः इत्येवं विद्वान जानन् कः सकर्ण अगारवासं गृहवासभावसेत् गृहपाशमनुबध्नीयादिति । उक्तञ्च
"दारा: परिभवकाराः बन्धुजनो बंधनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो ? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशाः ॥१०॥
टीकार्थ - नागार्जुनीय वाचना के अनुसार यहां 'सोऊण' इत्यादि पाठ है अर्थात् कोई सांसारिक पुरुष मुनि को आया जानकरउनके लिये विघ्न उपस्थित करने हेतु आये, कहे तो अनुत्तर-जिससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है, ऐसे उत्तम धर्म के परिपालन में विद्यमान विवेकशील मुनि इस प्रकार उनको जीत ले, निरुत्तर कर दे, इसी बात को सूत्रकार विवेचन करते हैं -
स्वर्ण आदि बहुमूल्य पदार्थ तथा कुटुम्ब एवं परिवार के लोग इस लोक में भी दुःखप्रद है इसे समझे। कहा है-धन का अर्जन करने में उसे कमाने में बड़ा दुःख-बड़ी तकलीफें सहनी होती है, उसकी रक्षा करने में भी कष्ट होता है "यों उसके आय-आने में, व्यय-खर्चने में या जाने में बहुत कष्ट होता है । यह धन तो दुःखों का पात्र है, धिक्कार योग्य है । भोग के संदर्भ में हाथी को संबोधित कर कहा गया है - . ___ हे गज ! तुम्हें रेवा नदी का जल, सल्लकी वृक्ष के पत्ते और अपना सुन्दर कुल प्राप्त है । इन सबको छोड़कर तुम एक हथिनी के प्रति कामुकतावश होकर दुःखित हो रहे हो-परितप्त हो रहे हो । संसार में यह भौतिक स्नेह ही अनर्थ की जड़ है । स्वर्ण आदि धन, वैभव के प्रति ममत्त्व में ग्रस्त रहने से परलोक में भी दुःख प्राप्त होता है । वह दु:ख फिर नये दुःख को पैदा करता है क्योंकि उस दुःख वश व्यक्ति फिर निम्न कार्य करता है । उनका फल भी तो दुःखजनक ही होता है । जो धन कमाया है, वह भी सदा नहीं रहता। स्थिर नहीं रहता, नष्ट हो जाता है । जो इस बात को जानता है वैसा कौन विवेकी-ज्ञानी गृहस्थ जीवन को अच्छा समझेगा । गृहस्थ के फंदे में अपने का बांधने हेतु उद्यत होगा । कहा है -
स्त्रियां परिभव-अपमान का कारण होती हैं । बंधु बांधव जन बंधन है-उनके मोह से व्यक्ति कर्मों से बंधता है । सांसारिक भोग जहर के समान है, ऐसा होते हुए भी मनुष्य कितना मोहछन्न है। उनमें, जो वास्तव में उसके शत्रु हैं मित्र की सी आशा रखता है।
159