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वैतालिय अध्ययनं
इस विषय में एक दृष्टान्त और दिया जाता है । एक तालाब निर्मल जल से भरा है, वह अनेक जल जीवी प्राणियों के संचरण से भी मलिन-मैला या गंदा नहीं होता, इसी प्रकार साधु संसार में रहते हुए भी मलिनदूषित नहीं होते । शांति, क्षमाशीलता आदि दस लक्षण युक्त धर्म को अपने जीवन में साकार करते हैं । साधु इसी प्रकार जीवन जीता हुआ तीर्थंकर देव द्वारा निरूपितधर्म को प्रकाशित करे । इस गाथा में छान्दस या आर्ष प्रयोग के नाते वर्तमान काल में भूतकाल का निर्देश हुआ है ।
बहवे पाणा पुढो सिया पत्तेयं समयं समीहिया ।
जो मोणपदं उवट्ठिये, विरतिं तत्थ अकासि पंडिए ॥८॥ छाया - बहवः प्राणाः पृथक् श्रिताः प्रत्येकं समतां समीक्ष्य ।
यो मौनपदमुपस्थितो विरतिं तत्रा कार्षीत् पण्डितः ॥ अनुवाद - इस जगत में बहुत से प्राणी है जो अलग अलग अपने अपने स्थानों में रहते हैं। विवेकी मुनि उन सबको समत्त्व भाव से देखता है । संयम के पथ पर अवस्थित रहता है, उसे चाहिये कि वह प्राणियों की हिंसा से विरत रहे-पृथक् रहे । __टीका-स बहुजननमने धर्मे व्यवस्थितो यादृग धर्मं प्रकाशयति तदर्शयितुमाह-यदि वोपदेशान्तरमेवाधिकृत्याह'बहवे' इत्यादि, बहवः अनन्ताः प्राणाः दशविधप्राणभाक्त्वात्तद भेदोपचारात् प्राणिनः पृथगिति पृथिव्यादिभेदेन सूक्ष्मबादरपर्याप्तका पर्याप्तनरकगत्यादिभेदेन वा संसारमाश्रिताः तेषाञ्च पृथगाश्रितानामपि प्रत्येकं समतां दुःखद्वेषित्वं सुखप्रियत्वञ्च समीक्ष्य दृष्ट्वा यदिवा समतां माध्यस्थ्यमुपेक्ष्य (त्य) यो मौनीन्द्रपदमुपस्थित:संयममाश्रितः स साधुः तत्र अनेनभेदभिन्नप्राणिगणे दुःख द्विषि सुखामिलाषिणि सति तदुपघाते कर्त्तव्ये विरतिमकार्षीत कुर्या द्वेति, पापाड्डीनः पापानुष्ठानाद् दवीयान् पण्डित इति ॥८॥
टीकार्थ - एक साधु जो बहुत से लोगों द्वारा वन्दनीय है, वह धर्म को जिस प्रकार प्रकाशित करता है उसका दिग्दर्शन कराते हुए आगमकार कहते हैं -
दस प्रकार के प्राणों को धारण करने के कारण प्राण धारियों का प्राणों के साथ अभेद संबंध आरोपित है । अत: यहाँ उन्हें प्राण कहा गया है । इस जगत में अनन्त प्राणी निवास करते हैं जो पृथ्वी आदि के भेद से सूक्ष्म, बादर-स्थूल, पर्याप्त-पर्याप्तिप्राप्त, अपर्याप्त-पर्याप्ति वर्जित एवं नरक आदि विभिन्न गतियों में स्थित इत्यादि के रूप में वे परस्पर भिन्न भिन्न हैं । यद्यपि ये पृथक् पृथक् रहते हैं किंतु इनमें से प्रत्येक प्राणी दुः ख के साथ द्वेष करता है और सुख के साथ राग करता है, वह दुःख नहीं चाहता, सुख चाहता है, यह सभी प्राणियों में एक जैसी वृत्ति है, इसे जानकर तथा सब प्राणियों के प्रति मध्यस्थ-तटस्थ भाव रखता हुआ एवं संयम मार्ग पर विघ्न रूप में उपस्थित अशुभ अनुष्ठान से दूर रहता हुआ विवेकशील-ज्ञानी पुरुष दु:ख द्वेषी और सुखाभिलाषी भिन्न भिन्न रूपों में अवस्थित प्राणियों की हिंसा से निवृत्त रहे ।
धम्मस्स य पारए मुणी आरंभस्स य अंतए ठिए । सोयंति य णं ममाइणो णो लब्भंति णियं परिग्गहं ॥९॥
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