________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
छाया धर्मस्य च पारगो पुनि रारम्भस्य चान्तके स्थितः ।
शोचन्ति च ममतावन्तः नो लभन्ते निजं परिग्रहम् ॥
-
अनुवाद जो पुरुष धर्म के पारगामी हैं - धर्म तत्त्व के जानकार है, उस पर चलने वाले हैं, जो आरम्भहिंसादि से दूरवर्ती हैं वे वस्तुतः मुनि हैं। जो व्यक्ति ममता में ग्रस्त रहते हैं, परिग्रह - धन-दौलत के लिये तड़फते रहते हैं वे शोकान्वित होते हुए भी परिग्रह को प्राप्त नहीं कर पाते ।
टीका - अपि च धर्मस्य श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य पारं गच्छतीति पारगः सिद्धान्तपारगामी सम्यक्चारित्रानुष्ठायी वेति, चारित्रमधिकृत्याह - 'आरम्भस्य' सावद्यानुष्ठान रूपस्य 'अन्ते' पर्यन्ते तदभावरूपे स्थितो मुनिर्भवति ये पुनर्नैवं भवन्ति ते अकृतधर्माः मरणे दुःखे वा समुत्थिते आत्मानंशोचन्ति णमिति वाक्यालङ्कारे, यदिवेष्टमरणादौ अर्थनाशे वा 'ममाइणो' त्ति ममेद-महमस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनः शोचन्ति शोचमाना अप्येते 'निजम' आत्मीयं परि समन्तात् गृह्यते आत्मसात्क्रियत इति परिग्रहः । हिरण्यादिरिष्ट-स्वजनादिर्वा तं नष्टं मृतं वा 'न लभन्ते' न प्राप्नुवन्तीति, यदि वा धर्मस्यं पारगं मुनिमारम्भस्यान्ते व्यवस्थितमेनमागत्य 'स्वजना: ' मातापित्रादयः शोचन्ति 'ममत्वयुक्ताः' स्नेहालवः न च ते लभन्ते निजमप्यात्मीय परिग्रहबुद्धया गृहीतमिति ॥९॥
टीकार्थ धर्मश्रुत - ज्ञान, चारित्र - आचार भेद से दो प्रकार का है। जिसने ऐसे धर्म को पार किया है अर्थात् जो धर्म के सिद्धांतों का सम्यक्वेत्ता है, भली भांति जानता है- जो शुद्ध चारित्र का धार्मिक चर्या का अनुसरण करता है, वह मुनि कहा जाता है । चारित्र को अधिकृत कर कहा जाता है कि जो आरम्भ - सा अनुष्ठान रूप पाप कृत्यों के अभाव में अवस्थित रहता है, वैसे असत् कर्म नहीं करता है, वह पुरुष मुनि है । किंतु ऐसा नहीं करने वाले लोग भी हैं वे धर्माचरण नहीं करते। मृत्यु या संकट उपस्थित होने पर आत्मा को शोकान्वित बनाते हैं । यहां इस गाथा में 'णं' शब्द वाक्यालंकार के रूप में प्रयुक्त हुआ है । इष्ट- अभिप्सित या प्रिय की मृत्यु या धन का नाश होने पर ये मेरे हैं, मैं इनका स्वामी हूँ, ये क्या हो गया, यों अवसाद पूर्वक चिन्तन करने वाले उनके लिये बहुत शोकान्वित होते हैं किंतु शोक करने के बावजूद वे अपने नष्ट हुए परिग्रह आदि को प्राप्त नहीं कर सकते । परिग्रह उसे कहा जाता है जो चारों ओर से अपने अधीन किया है, स्वायत्त कियाजाता है या ग्रहण किया जाता है। सोनाआदि पदार्थ तथा पारिवारिक जन परिग्रह में आते हैं, जो स्वर्ण आदि पदार्थ नष्ट हो गये, जो पारिवारिक जन मृत्यु को प्राप्त हो गये, उन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता अथवा धर्म के पारगामी - तत्त्व वेत्ता आचारनिष्ट एवं हिंसा आदि आरंभ के अनासेवी मुनि के समीप आकर उसके माता पिता आदि रिश्तेदार अपना ममत्त्व दिखलाते हैं, स्नेह दिखलाते हैं। उन मुनि द्वारा घर छोड़ दिये जाने के कारण वे शोक प्रकट करते हैं । उस मुनि को वे अपना परिग्रह, अपनी सम्पत्ति समझते हैं किंतु उसे पाने में समर्थ नहीं होते।
/
छाया
-
इह लोग दुहावहं विऊ परलोगे य दुहं दुहावहं । विद्धंसणधम्ममेव तं इति विज्जं कोऽगार मावसे ॥ १० ॥
-
इहलोकदुःखावहं विद्याः परलोके च दुःखं दुःखावहम् । विध्वंसनधर्ममेव तद् इति विद्वान् कोऽगार मावसेत् ॥
158